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________________ १२ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) दूसरी बात पूर्वासु ऋत्वन्तरैर्व्यवहितासु वर्षासु भवः पौर्ववार्षिकः' प्रयोग में जो ‘काललक्षण इकण' प्रत्यय किया है, उसको श्रीलावण्यसूरिजी स्वीकार नहीं करते हैं, किन्तु यह बात सिर्फ श्रीहेमहंसगणि ने ही बतायी है, ऐसा नहीं है । आ. श्रीहेमचंद्रसूरिजी ने भी 'अंशाहतोः' ७/४/१४ की वृत्ति में भी इस प्रकार बताया है, अतः हमें भी इसको स्वीकार करना चाहिए क्योंकि अन्ततोगत्वा प्रत्येक सूत्रकार लक्ष्य की सिद्धि करने के लिए ही प्रयत्न करते हैं तथा उनके समय में और उनके पूर्व भी इस तरह के प्रयोग प्रचलित होंगे अतः उन सबका संग्रह करना जरूरी होने से 'पूववर्षा' शब्द से 'काललक्षण इकण्' प्रत्यय किया है क्योंकि न्यास में बताया है उसी तरह ‘ग्रहणवता नाम्ना - ॥१८॥' न्याय की प्राप्ति नहीं है, तथा 'तदन्तविधि' का निषेध भी नहीं होता है; इसलिए 'इकण्' प्रत्यय होता है, किन्तु 'अंशाहतोः' ७/४/१४ से उत्तरपद की वृद्धि नहीं होती है क्योंकि वहाँ 'पूर्व' आदि शब्द अंशवाचक नहीं है। संक्षेप में श्रीलावण्यसूरिजी सिर्फ 'वर्षा' शब्द को कालवाचक मानते हैं किन्तु 'पूर्ववर्षा' शब्द को कालवाचक नहीं मानते हैं, जबकि श्रीहेमचन्द्राचार्यजी 'पूर्ववर्षा' शब्द को भी कालवाचक मानते हैं। पाणिनीय परम्परा में यह न्याय, 'येन विधिस्तदन्तस्य' [ पा.सू. १/१/६९] के वार्तिक 'समासप्रत्ययविधौ प्रतिषेधः' के अपवाद स्वरूप और उसके द्वारा निषिद्ध 'तदन्तविधि' के प्रतिप्रसव रूप में बनाये हुए वार्तिक के रूप में है, अत: वहाँ पर कोई ज्ञापकं की अपेक्षा नहीं है । पूर्व के - सुसर्वार्द्ध - न्याय और इसी न्याय का फल दोनों परंपरा में समान ही है । भोज व्याकरण और हैम व्याकरण के अलावा अन्य किसी भी परम्परा में इस सिद्धांत का न्याय (परिभाषा) के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। ॥४॥ स्वरस्य हस्वदीर्घप्लुताः ॥ हस्व, दीर्घ, प्लुत आदेश स्वर के ही होते हैं । हुस्व, दीर्घ और प्लुत आदेश स्वर के ही होते हैं किन्तु व्यञ्जन के नहीं होते हैं। हस्व, दीर्घ, प्लुत, आदेश, कहाँ पर (किन के) होते हैं यह स्पष्ट रूप से बताया नहीं है, अतः स्वर की तरह व्यञ्जन के स्थान पर भी इस्व, दीर्घ, प्लुत आदेश होने की संभावना है, उसका निषेध करने के लिए यह न्याय है। उदा. सह श्रिया सश्रि कुलम् । यहां 'श्री' के 'ई' का 'क्लीबे' २/४/९७ से ह्रस्व इ होगा, किन्तु व्यञ्जन का इस्व नहीं होगा । उदा. तत् । यदि यह न्याय न होता तो 'क्लीबे' २/४/९७ से 'तत्' के त् का ('लवर्ण, तवर्ग, ल' और 'स' दन्त्य होने से) आसन्न ह्रस्व 'लु' होता। 'प्रत्यञ्चन्ति इति क्विपि प्रत्यञ्चः तान् प्रतीचः'। यहाँ 'अच्च् प्राग्दीर्घश्च' २/१/१०४ सूत्र से 'अच्' का 'च' आदेश होने पर 'प्रति' का 'इ' दीर्घ होगा, किन्तु 'दृषदमञ्चन्ति इति क्विपि, तान् दृषच्चः' में 'अच्च् प्राग्दीर्घश्च' २/१/१०४ से 'अच्' का 'च' आदेश होने के बाद पूर्व के 'द्' का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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