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________________ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) पाणिनीय व्याकरण में इस न्याय को ' येन विधिस्तदन्तस्य ' [ पा. सू. १/१/७२ ] सूत्र के वार्तिक 'समासप्रत्ययविधौ प्रतिषेधः' से प्राप्त निषेध के अपवाद स्वरूप बनाये हुए 'सुसर्वाद्ध: दिक्शब्देभ्यो जनपदस्य' वार्तिक के रूप में होने से ज्ञापक इत्यादि बताया नहीं है। और परिभाषेन्दुशेखर में स्पष्ट रूप से बताया है कि 'ग्रहणवता नाम्ना-' न्याय, 'समासप्रत्ययविधौ प्रतिषेधः ' वार्तिक का ही केवल अनुवाद है 1 १० यह न्याय भोज, जैनेन्द्र और हैमव्याकरण के अलावा अन्य कोई भी परिभाषासंग्रहवृत्ति में उपलब्ध नहीं है । ॥३॥ ऋतोर्वृद्धिमद्विधाववयवेभ्यः ॥ पूर्वपद में, उत्तरपद में आये हुए ऋतुवाचक शब्द के अवयवरूप शब्द होने पर, ऋतुवाचक शब्द से जो विधि होती है, वही विधि उसी ऋतुवाचक शब्दान्त शब्द से होगी । यदि उसी शब्द के बाद वृद्धिमान् प्रत्यय आया हो । जिस प्रत्यय का निमित्त पाकर, प्रकृति के स्वर की वृद्धि होती है, ऐसे ञित् - णित् प्रत्ययों को यहाँ वृद्धिमान् प्रत्यय माने जाते हैं । ऋतुवाचक शब्द से ञित् णित् प्रत्यय आने पर जो विधि होती है, वही विधि अवयववाचक पूर्वपदवाले ऋतुवाचकान्त शब्दों में भी होती है । अतः जैसे 'वर्षासु भवं वार्षिकं' में केवल वर्षा शब्द से 'वर्षाकालेभ्यः ' ६/३/८० सूत्र इक होता है वैसे 'पूर्व: प्रथमोऽवयवो वर्षाणां पूर्ववर्षा' शब्द में 'पूर्वापराधरोत्तरमभिन्नेनांशिना' ३/ १/५२ सूत्र से अंशितत्पुरुष होने पर या ' पूर्वावयवयोगात् पूर्वाः प्रथमाः पूर्वाश्च ता वर्षाश्व पूर्ववर्षा' शब्द में 'पूर्वापरप्रथम- चरम- जघन्य-समान-मध्य-मध्यम-वीरम् ' ३/१/१०३ सूत्र से कर्मधारय समास होने पर 'पूर्ववर्षासु भवं पूर्ववार्षिकम् ' में वर्षान्त शब्द से भी 'वर्षाकालेभ्य: ' ६/३/८० सूत्र से वर्षा लक्षण 'इकण्' प्रत्यय होता है और 'अंशादृतो: ७ / ४ / १४ सूत्र से उत्तरपद के आद्य स्वर की वृद्धि होती है । ठीक उसी तरह, जैसे 'शिशिरे भवं शैशिरम्' आदि में केवल ऋतुवाचक शब्द से ‘भर्तुसन्ध्यादेरण्' ६/३/८९ से ऋतुलक्षण अण् होता है, वैसे 'पूर्वशिशिरे भवम्, पूर्वशैशिरम्' आदि में ऋत्वन्त शब्दों से भी ' भर्तुसन्ध्यादेरण् ६ / ३ / ८९ सूत्र से ऋतुलक्षण 'अण्' प्रत्यय होगा, और पूर्व की तरह 'अंशादृतो: ' ७/४/१४ से उत्तरपद के आद्य स्वर की वृद्धि होगी । 'वृद्धिमद्विधा' ही क्यों ? यदि ' वृद्धिमद्' प्रत्यय पर में न हो तो ऋतुवाचक शब्द के अवयव स्वरूप पूर्वपदयुक्त ऋत्वन्त शब्द से वही प्रत्यय ( ञित् णित् भिन्न या अवृद्धिमत् प्रत्यय) नहीं होता है | उदा. 'प्रावृष एण्यः' ६ / ३ / ९२ सूत्र से होनेवाला 'एण्य' प्रत्यय केवल प्रावृष् शब्द से ही होता है किन्तु प्रावृष् अन्तवाले, पूर्वप्रावृष् शब्द से नहीं होगा अर्थात् 'पूर्वप्रावृषि भवः पूर्वप्रावृषेण्यः' ऐसा प्रयोग नहीं होगा । क्या अवयववाचक पूर्वपद होना जरूरी है ? 'पूर्वा ऋत्वन्तरैर्व्यवहिताश्च ता वर्षाश्च पूर्ववर्षाः ' यहाँ पहले बताया उसी प्रकार से कर्मधारय समास होगा। बाद में 'पूर्ववर्षासु भवं पौर्ववर्षिकम् ' और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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