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________________ २९५ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १०४) ॥१०४॥ शुद्धधातूनामकृत्रिमं रूपम् ॥४७॥ शुद्धधातुओं के स्वरूप अकृत्रिम माने जाते हैं। शुद्धधातु अर्थात् धातुपाठ में जिस वर्णानुपूर्वी से पाठ किया गया है, वही वर्णानुपूर्वीयुक्त धातु अकृत्रिम कहा जाता है अर्थात् वह 'कृत' माना जाता नहीं है क्योंकि उसका यही स्वरूप किसी भी शास्त्र या व्याकरण के सूत्र से निष्पन्न नहीं हो सकता है या होता है किन्तु उसी स्वरूप को स्वाभाविक ही माना जाता है । धातु ही शब्द के बीज/उद्भवस्थान स्वरूप होने से अपने 'अकृत्रिम' रूप को धारण करते हैं। विभक्ति इत्यादि प्रत्यय भी शास्त्र से निष्पन्न नहीं हैं और शास्त्रकार द्वारा उच्चरित होने से वे भी शुद्ध हैं, तो केवल शुद्ध धातु का रूप ही अकृत्रिम है, उसी भावार्थयुक्त यह न्याय अपर्याप्त है, ऐसी कोई शंका करे तो उसके प्रत्युत्तर में यह कहा जा सकता है कि विभक्ति इत्यादि के प्रत्यय किसी निश्चित अर्थ में विहित होने से वे कत्रिम माने जाते है। धातु का शुद्ध स्वरूप अकृत्रिम होने से जैसे 'वृक्षेषु' इत्यादि प्रयोग में 'सप्तम्यधिकरणे' २/ २/९५ सूत्र से उच्चार करके, 'वृक्ष' शब्द से 'सुप्' प्रत्यय किया है, अत: वह 'कृत' होने से उसी 'स' का 'नाम्यन्तस्थाकवर्गात्....'२/३/१५ से ष होता है । वैसे 'मुसच्' धातु से उणादि का कित 'अल्' प्रत्यय होने पर मुसल' शब्द बनेगा, उसमें 'स' कृत नहीं होने से उसका 'नाम्यन्तस्था....' २/ ३/१५ से 'ष' नहीं होगा । धातुपाठ भी एक प्रकार के सूत्र ही कहे जा सकते हैं । अतः उसमें कहे गये धातु भी ‘कृत' कहे जा सकते हैं, उसका निषेध करने के लिए यह न्याय है । शुद्ध विशेषण के कारण विकारापन्न धातु स्वाभाविक नहीं माना जाता है । उदा. 'घन भक्तौ,' यहाँ 'षः सोऽष्ठयै२/३/९८ से 'ष' का 'स' होगा, तब यह 'स' कृत माना जायेगा । अतः 'सन्' स्वरूप धातु के 'स' का 'असीषणत्' इत्यादि में 'नाम्यन्तस्था'- २/३/१५ से 'ष' होगा।। वस्तुतः 'कृत' किसे कहा जाता है ? इसके बारे में विचार करने पर लगता है कि सूत्र द्वारा विधान करके, जो किया जाता है वह 'कृत' कहा जाता है। शुद्ध धातु का उसी प्रकार से किसी भी सूत्र द्वारा विधान नहीं किया गया है। अतः शुद्ध धातु में कृतत्व की शंका ही नहीं है । अतः इस न्याय की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है और शुद्ध धातु का यही स्वरूप स्वाभाविक ही है और उसका ही यह न्याय अनुवाद है । यहाँ ऐसी शंका न करनी चाहिए कि इस प्रकार प्रत्येक धातु के अकृत्रिमत्व का स्वीकार करने पर 'षण (षन) भक्तौ' धातु का कृत सकार भी 'अकृत' माना जायेगा तो उसका ‘षत्व' नहीं होगा। इसका कारण बताते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि धातु 'कृत' नहीं होने पर भी सकार तो कृत ही है । अतः षत्व की प्रवृत्ति में कोई बाधक नहीं है। यहाँ 'कृतत्व' दो प्रकार का माना जाता है। १. 'स' स्वयं कृत हो वह, और २. कृत में स्थित हो तो भी वह कृत ही माना जाता है । 'घन' (सन) धातु स्वयं अकृत है । अतः उसमें स्थित 'स' कृत में स्थित नहीं है क्योंकि धातु स्वयं अकृत्रिम है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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