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________________ द्वितीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. ९९ ) २८३ नहीं ऐसा इस न्याय का अर्थ है । संक्षेप में जहाँ 'अङ्क' इत्यादि 'चुरादि' धातु से, किसी भी कारण से 'णिच्' हुआ न हो, या तो होने के बाद उसका लोप हुआ हो तो उन्हीं 'अङ्क' आदि धातुओं को अकारान्त नहीं मानने चाहिए ऐसा इस न्याय का तात्पर्य है । पूर्व न्याय 'अनित्यो णिच् चुरादीनाम् ' ॥४०॥ से 'चुरादि' धातुओं से यथादर्शन 'णिच्' का अभाव कहा गया है । अतः 'अङ्क' इत्यादि धातु से जब 'णिच्' नहीं होगा या 'णिच्' का लोप होगा तब 'अदन्तत्वनिमित्तक' और अदन्तत्व के कारण प्राप्त अनेक स्वरनिमित्तक कार्य का निषेध करने के लिए, अङ्कादि स्वरूप चुरादि धातु को अकारान्त न मानना चाहिए, ऐसा कहा है । यहाँ श्रीमहंसगणि ने कहा है कि "प्राग् णिचः सर्वत्र यथादर्शनमनित्यत्वोक्तेर्णिजभावपक्षे अङ्कादीनामदन्तता निषेधार्थोऽयं न्याय: " । इन शब्दों का अर्थ ऐसा होता है कि 'अनित्यो णिच् चुरादीनाम् ||४०|| न्याय से या 'युजादेर्नवा' ३/४ / १८ सूत्र से जहाँ 'णिच्' का प्रथम / पहले से अभाव हो वहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति होती है, किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है । वह श्रीहेमहंसगणि द्वारा दिये गए उदाहरण और ज्ञापक से ही स्पष्ट हो जाता है । अतः श्रीहेमहंसगणि के उपर्युक्त विधान में थोड़ा सा परिवर्तन करने की आवश्यकता प्रतीत होती है । "प्राग् णिचः सर्वत्र यथादर्शनमनित्यत्वोक्ते जिभावपक्षे 'तथा च अन्येन केनापि हेतुना णिलोपे सति' अङ्कादीनामदन्तता निषेधार्थोऽयं न्यायः।" इस न्याय के उदाहरण 'जगणतु:' इत्यादि रूप में जब 'गण' धातु से परोक्षा में 'णिच्' नहीं होगा तब यदि उसे अकारान्त माना जायेगा तो, वह अनेकस्वरविशिष्ट हो जायेगा, तो 'धातोरनेकस्वरादाम्'- ३/४/४६ से 'आम्' प्रत्यय होगा, किन्तु इस न्याय के कारण, वह अकारान्त नहीं माना जायेगा । अतः अनेकस्वरविशिष्ट भी नहीं होगा और 'आम्' भी न होकर 'जगणतु:' इत्यादि रूपों की सिद्धि हो सकेगी । 'कथ, रच, गण, प्रथ, स्पृह', इत्यादि धातुओं का अकारान्त पाठ करने का कारण इतना ही है कि जब इन धातुओं से 'णिच्' प्रत्यय होगा तब 'ञ्णिति' ४ / ३ / ५० से उपान्त्य 'अ' की वृद्धि या 'लघोरुपान्त्यस्य' ४/३/४ से उपान्त्य लघुनामी - र -स्वर का गुण होने की प्राप्ति है, उसे दूर करने के लिए 'अदन्त' पाठ किया है । 4 इस न्याय का ज्ञापक 'ई च गण: ' ४/१/६७ सूत्रगत 'च' है । यहाँ 'ई वा गणः ' स्वरूप सूत्ररचना की होती तो भी 'अजीगणत्' और 'अजगणत्' रूप सिद्ध हो सकते थे, तथापि 'ई च गण: ४/१/६७ सूत्र बनाया, वह इस न्याय का ज्ञापक है। वह इस प्रकार : 'गण' धातु से 'णिच्' और 'णिग्' दोनों प्रत्यय होने पर, 'अजीगणत्' और 'अजगणत्' ऐसे दो रूप आचार्यश्री को इष्ट हैं । यदि 'गण' धातु को सर्वथा अकारान्त माना जाय तो 'ई वा गणः ' ऐसे सूत्र से भी दोनों रूप सिद्ध हो सकते हैं, वह कैसे ? प्रथम 'ई वा गण: ' सूत्र के ईत्व पक्ष में 'अजीगणत्' होगा और जब ईत्व नहीं होगा, तब 'गण' धातु को अकारान्त मानने से वह समानलोपि होगा, अतः 'असमानलोपे १. दूसरी एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि सिद्धहेम की परम्परा में शव्, श्य, श्नु, श्ना, श, उ' इत्यादि विकरण प्रत्यय, वर्तमाना, ह्यस्तनी, पंचमी ( आज्ञार्थ), सप्तमी (विध्यर्थ) के प्रत्यय पर में होने पर ही होते 1 जबकि चुरादि से होनेवाला णिच् प्रत्यय धातु के अर्थ में - स्वार्थ में होता है । अतः वह दशों काल में होता है । अतः उसे 'शव्' इत्यादि विकरण प्रत्यय जैसा न मानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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