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________________ २७७ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ९६) स्वयं आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने बृहवृत्ति में की है और ज्ञापक भी बताया है । अतः उसका स्वीकार करना आवश्यक है। इस न्याय के पुंवद्भाव की अनित्यता स्वरूप अंश की और ज्ञापक की चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'कौण्डिन्यागस्त्ययोः कुण्डिनागस्ती च' ६/१/१२७ सूत्र की बृहद्वृत्ति में 'कौण्डिन्य' शब्द निपातन द्वारा सिद्ध किया है और उसके द्वारा पुंवद्भाव का अभाव होता है, किन्तु 'कौण्डिन्य' शब्द को पुंवद्भाव की अनित्यता के ज्ञापक के रूप में बताया नहीं है और 'दाक्षिणात्यः' शब्द की सिद्धि इस प्रकार बतायी है- यहाँ 'दक्षिणा' शब्द भिन्न स्वरूप से लिया गया है। उसे दिशावाचि शब्द नहीं किन्तु अव्यय के स्वरूप में लिया है । वह अव्यय इस प्रकार बनता है- 'दक्षिणस्यां दिशि वसति' अर्थ में दिशावाचि 'दक्षिणा' शब्द से 'वा दक्षिणात्प्रथमासप्तम्या आः ७/२/११९ से 'आ' प्रत्यय होकर अव्यय बनेगा और उससे 'तत्र भवे' अर्थ में 'दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यण' ६/३/१३ से त्यण प्रत्यय होगा । इस प्रकार पुंवद्भाव के अनित्यत्व के ज्ञापन का कोई फल नहीं है । तथापि लघुन्यासकार ने यही अर्थ ज्ञापित किया है, अत एव श्रीहेमहंसगणि ने भी वैसा किया हो, ऐसा लगता है। यद्यपि 'दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यण' ६/३/१३ में अव्यय के साहचर्य से 'दक्षिणा' शब्द भी अव्यय मानना चाहिए, अन्यथा 'दक्षिणा' ऐसा निर्देश करना उचित नहीं है क्योंकि 'दक्षिणा' शब्द दिशावाचक हो तो, उसका सूत्र में भी पुंवद्भाव करके 'दक्षिणपश्चात्'- निर्देश करना होता और वही उचित था । यद्यपि बृहद्वृत्ति में यहाँ 'दक्षिणा' शब्द को दिशावाचक और अव्यय दोनों प्रकार के लेकर सिद्धि बतायी है । "दक्षिणा दिक् तस्यां भवो दाक्षिणात्यः, अथवा दक्षिणस्यां दिशि वसति'वा दक्षिणात्प्रथमासप्तम्या आ:' ७/२/११९ इति आ प्रत्यये दक्षिणा तत्र भवो दाक्षिणात्यः ।" यहाँ पुंवद्भाव की चर्चा नहीं की है और यहाँ दक्षिणा शब्द को अव्यय के रूप में लेना, ऐसा अन्य के मतानुसार स्थापन किया है तथापि श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि शास्त्रकार को इसी न्यायांश की आवश्यकता महसूस नहीं होती है क्योंकि 'कौण्डिन्यागस्त्ययोः' -६/१/१२७ में 'कौण्डिन्य' शब्द को निपातन स्वरूप लिया है, अत एव वह पुंवद्भाव की अनित्यता का ज्ञापक नहीं बन सकता है, किन्तु बृहद्वृत्ति में श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने स्वयं 'कौण्डिन्य' शब्द को निपातन स्वरूप नहीं लिया है। वे स्वयं 'कौण्डिन्यागस्त्ययो:'- ६/१/१२७ की बृहद्वृत्ति में कहते हैं कि "कुण्डिन्या अपत्यं, गर्गादित्वाद् यञ् अत एव निर्देशात्पुंवद्भावाभावः" । अत: 'कौण्डिन्य' स्वरूप निर्देश ही पुंवद्भाव की अनित्यता का ज्ञापक बनता है ऐसा स्वीकार करना चाहिए । लघुन्यासकार ने भी यही कहा है। 'एकशेष' की अनित्यता के उदाहरण और ज्ञापक दोनों के लिए 'तदतदात्मकं तत्त्वमातिष्ठन्ते जैना:' जैसे प्रयोगों को ही बताये हैं । वस्तुतः उदाहरण और ज्ञापक दोनों यही एक ही पंक्ति नहीं बन सकती है । वस्तुतः एकशेष में अनित्यता है ही नहीं । एकशेष समास में लुप्त हुए पद का अर्थ या भाव, विद्यमान पद द्वारा अभिव्यक्त होता है । यदि इस प्रकार लुप्त पद का अर्थ, विद्यमान पद द्वारा सूचित न होता हो तो, एकशेष नहीं करना चाहिए और होता भी नहीं है, क्योंकि कृत्, तद्वित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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