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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ७८ ) ॥ ७८ ॥ श्रुतानुमितयोः श्रौतो विधिर्बलीयान् ॥ २१ ॥ सूत्रप्राप्त और परिभाषाप्राप्त विधि में से सूत्रप्राप्त विधि बलवान् है । 'श्रुत' अर्थात् सूत्र में साक्षात् शब्द द्वारा कही गई हो वह और अनुमित अर्थात् परिभाषा से निष्पन्न या पूर्वानुवृत्ति या अधिकार इत्यादि से आरोपित । 'श्रुतानुमितयोः ' यहाँ सम्बन्ध में षष्ठी है और 'विध्योः ' पद अध्याहार है और उसमें 'निर्धारणे' २२५ है । 'श्रुतस्यायं श्रौतः ' यहाँ ' तस्येदम्' ६/३/१६० से 'अण्' प्रत्यय होने पर ' वृद्धिः स्वरेष्वादेः...' ७/४/१ से 'उ' की वृद्धि होने से 'श्रौतः ' शब्द होगा । अर्थ इस प्रकार है :- 'श्रुत' और 'अनुमित' दोनों प्रकार की विधियों का जहाँ संभव हो वहाँ दो में से श्रुतविधि बलवान् मानी जाती है, और वही होती है उदा. 'ऋतां क्ङितीर्' ४/४/११६ 'तीर्णम्' यहाँ 'तू' धातु से 'क्त' प्रत्यय हुआ है उसका 'ॠल्वादेरेषां तो नोऽप्र: ' ४ / २ / ६८ से 'न' हुआ है और उसका 'रषृवर्णान्नो' - २ / ३ /६३ से 'ण' हुआ है । अब तां ङितीर्' ४/४/ ११६ से 'ऋ' का इर्' करते समय, वही 'इर्' आदेश सिर्फ 'ऋ' का करना या संपूर्ण ऋकारान्त 'तू' का करना ? यहाँ 'ऋ' का 'इर्' आदेश श्रुतविधि है, अतः वही गी। जबकि समग्र / संपूर्ण ऋकारान्त धातु का 'इर्' आदेश 'अनेकवर्णः सर्वस्य' ७/४/१०७ परिभाषा से निष्पन्न होने से नहीं होगा । इसके अतिरिक्त यहाँ दन्तत्व और ऋताम् दोनों का विशेषण - विशेष्यभाव होने पर ऋतां विशेषण होगा और 'विशेषणमन्त: ' ७ / ४ / ११३ परिभाषा से ऋदन्तत्व आरोपित विशेष्य होने से अनुमित होगा । अतः अनुमित ॠदन्तत्व निबल होने से तत्सम्बन्धितविधि नहीं होगी। ऋदन्त की विधि कौन सी है, तो कहते हैं कि 'इर्' आदेश अनेकवर्णयुक्त होने से 'अनेकवर्ण: सर्वस्य' ७/४/ १०७ से निष्पन्न समग्र / अखंड ऋकारान्त धातु का 'इर्' आदेश होने की प्राप्ति है, वही दन्त सम्बन्धितविधि है । अर्थात् दोनों तरह से 'ऋ' का 'इर्' आदेश श्रुतविधि है और संपूर्ण ऋकारान्त धातु का 'इर्' आदेश अनुमित होगा । अतः श्रुतविधि बलवान् होने से वही होगी। इस न्याय का ज्ञापन 'ऋतां क्ङितीर् ' ४/४/११६ सूत्रगत 'ऋतां' शब्द से होता है । यहाँ 'ऋतामृत:' निर्देश करने के स्थान पर सिर्फ 'ऋतां' निर्देश किया, वह इस न्याय के अस्तित्व के कारण ही । वह इस प्रकार है । यहाँ 'ऋतां' की व्याख्या 'ऋदन्तानाम्' होगी और 'इर्' आदेश अनेकवर्णयुक्त होने से, 'अनेकवर्णः सर्वस्य' ७/४/१०७ परिभाषा से संपूर्ण ऋकारान्त धातु का ही 'इर्' आदेश होने की प्राप्ति है। जबकि आचार्यश्री को केवल ॠकार का ही 'इर्' आदेश इष्ट है । अत एव 'अनेकवर्णः सर्वस्य' ७/४/९०७ परिभाषा को निरवकाश करने के लिए 'ऋतामृत इर्' ऐसा निर्देश करना आवश्यक था तथापि ऐसा न करके केवल 'ऋतां' निर्देश किया, वह इस न्याय से श्रुत ॠ का ही ૧૯ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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