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________________ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) सिद्धम की परंपरा में जातिपक्ष और व्यक्तिपक्ष दोनों सम्मत हैं । 'औदन्ताः स्वराः ' १/१/ ४ सूत्र की बृहद्वृत्ति तथा उसके बृहन्यास में कहा है कि ऊपर बताया उसी प्रकार से जातिपक्ष का आश्रय करने से सब वर्ण का संग्रह हो जाता है, तो 'अ, आ, इ, ई,..' में दीर्घ का पाठ किया वह व्यर्थ होगा क्योंकि केवल 'अ इ उ ऋ लृ ' कहने से ही उसके सजातीय दीर्घ का भी समावेश हो है । उसका प्रत्युत्तर देते हुए वे स्वयं कहते हैं कि 'जातिव्यक्तिभ्यां च शास्त्रं प्रवर्तते' अर्थात् शास्त्र में जातिपक्ष और व्यक्तिपक्ष का भी आश्रय किया गया है। उसका ज्ञापन करने के लिए दीर्घ का भी पाठ किया है । १७० इस न्याय की अनित्यता के ज्ञापक के स्वरूप में 'धुटां प्राक्' १/४/६६ सूत्र स्थित बहुवचन को माना है । उसके बारे में श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यह बहुवचन ऐसा सूचित करता है कि यहाँ कोई धुट् में व्यक्तिपक्ष का आश्रय करके केवल एक ही धुट् का ग्रहण न करें किन्तु संपूर्ण धुट् जाति का यहाँ आश्रय करना । संक्षेप में, इस शास्त्र में जातिपक्ष और व्यक्तिपक्ष दोनों की व्यवस्था होने से उसी प्रकार से शास्त्र की प्रक्रिया का निर्वाह होता है तथापि वर्ण के विषय में जातिपक्ष का आश्रय बतानेवाले, इस न्याय का स्वनिर्दिष्ट युक्ति द्वारा या लौकिक दृष्टान्त से सिद्ध करने के बाद उसके ही विषय में पुनः व्यक्तिपक्ष का आश्रय करना उचित नहीं है और उसके लिए कोई प्रमाण नहीं है । अतः व्यक्तिपक्ष के आश्रय के बोधक [ धुटां प्राक् १/४/६६ सूत्रगत ] बहुवचन, जातिपक्ष के आश्रय का अनित्यत्व भी सूचित करता है, अतः वह इस न्याय की अनित्यता का ही बोधक है। श्रीलावण्यसूरिजी इसके बारे में कहते हैं कि आपकी बात सही है, उसका हम स्वीकार करते हैं तथापि इतना विशेष कहते हैं कि अन्य सामान्य न्याय की तरह यह भी केवल ज्ञापक सिद्ध होने से इसकी सर्वत्र प्रवृत्ति नहीं होती है। और यह न्याय लोकसिद्ध अर्थ को बतानेवाला होने से, उसमें विशिष्ट नियमन करने की शक्ति नहीं है, इतना ही हमारा कहना I 'णि' को विशिष्ट वर्णसमुदाय मानना या केवल वर्ण मानना, इसकी चर्चा जैसे श्रीलावण्यसूरिजी ने की है वैसे श्रीमहंसगणि ने भी न्यास में उसकी चर्चा की है । श्रीलावण्यसूरिजी ने 'केचित्तु ' कहकर 'णि' को विशिष्टवर्णसमुदाय नहीं किन्तु वर्ण ही कहना चाहिए, ऐसी मान्यतावाले का मत दिखलाकर उसका खंडन किया है । किन्तु वही मत किसका है वह स्पष्ट नहीं होता है क्योंकि श्रीमहंसगणि ने तो 'णि' विशिष्टवर्णसमुदाय ही है, ऐसा स्पष्टरूप से प्रतिपादित किया 1 श्रीमहंसगणि ने न्यास में 'णि' में वर्णसमुदायत्व है या नहीं ? इसकी चर्चा करते हुए बताया है कि 'णि' में 'ण्' लोप होने पर केवल 'इ' ही रहता है, अतः उसका 'वर्णग्रहणे जातिग्रहणं' में ही समावेश हो जाता है, अतः इसके लिए 'उपलक्षणत्वात् विशिष्टवर्णसमुदायेऽपि जातिग्रहणम्' ऐसा कहने की आवश्यकता नहीं है । इस शंका का प्रत्युत्तर देते हुए वे कहते हैं कि शास्त्र में उच्चारित जो रूप हो उसका ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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