SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ६३) १६३ से विहित आम् का भी ग्रहण होता है । अतः 'पाचयाञ्चक्रुषा' इत्यादि में 'टा' का लोप होने से 'तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ' १/३/१४ से अनुस्वार और अनुनासिक दोनों होंगे । यहाँ उपलक्षण से षष्ठी के बहुवचन के 'आम्' प्रत्यय का ग्रहण नहीं होगा, क्योंकि जो 'आम्' 'आम्' के स्वरूप में ही हमेशा के लिए रहता हो उसका ही ग्रहण होता है, जबकि षष्ठी बहुवचन के ‘आम्' का 'नाम्, साम्' आदेश होते हैं, अतः उसका ग्रहण नहीं होगा। ऊपर बताया वही समाधान देकर, फिर से /पुनः दूसरा समाधान देते हैं किन्तु वह समाधान बृहन्यास में दिया है वही है । संक्षेप में यहाँ 'आम्' ग्रहण के लिए सूत्रकार ने बृहन्यास में, और लघुन्यासकार ने भी इसी न्याय की प्रवृत्ति की है किन्तु इस न्याय की अनित्यता का आश्रय नहीं किया है । अतः यहाँ अनित्यता का फल बताना उचित नहीं है। 'पाचयाञ्चक्रुषा' में 'पाचयाम्' को 'वत्तस्याम्' १/१/३४ से अव्यय संज्ञा क्यों करनी चाहिए, उसकी चर्चा जैसे श्रीलावण्यसूरिजी ने की है, वैसे श्रीहेमहंसगणि ने भी की है। अव्यय संज्ञा करने का मुख्य कारण तृतीया एकवचन के 'टा' प्रत्यय का लोप करने का है । दूसरा कारण 'पाचयाम्' में पदत्व लाने का है । वही पदत्व आने से 'म्' का अनुस्वार और अनुनासिक दोनों होते हैं । यह पदत्व दो प्रकार से संभव है। १. 'आम्' स्वतंत्र प्रत्यय मानकर आमन्त को अव्यय बनाकर उसमें नामत्व सिद्ध करके 'टा' प्रत्यय का लोप करके, स्याद्यन्त पद बनाया जा सकता है। और २. परोक्षा के क्वसु के स्थान पर हुए 'आम्' में परोक्षावद्भाव करके उसमें त्याद्यन्त पद संज्ञा हो सकती है। उसमें स्याद्यन्त पदनिष्पति की चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी पूर्वपक्ष का स्थापन करते हैं और कहते हैं कि वत्तस्याम्' १/१/३४ सूत्र में अविभक्ति 'वत्' और 'तस्' के साहचर्य से 'आम्' भी अविभक्ति ग्रहण किया जायेगा, अत: षष्ठी बहुवचन के 'आम्' का ग्रहण नहीं होगा। और 'आम्' की तद्धित प्रत्यय के स्वरूप प्रसिद्धि है, अत: 'पाचयाञ्चक्रुषा' इत्यादि में 'क्वसु' के स्थान पर 'धातोरनेकस्वरादाम्' ३/४/४६ से हुए 'आम्' का भी ग्रहण नहीं होगा, तो उसकी अव्यय संज्ञा न होने से तृतीया एकवचन के 'टा' प्रत्यय का लोप नहीं होगा । और यहाँ कोई ऐसा तर्क करें कि 'पाचयाम्' में नामत्व नहीं है, अतः उससे 'टा' प्रत्यय नहीं हो सकता है, अतः अव्यय संज्ञा करके नामत्व लाकर बाद में तृतीया का टा प्रत्यय लाकर उसका लोप किया जाय, उससे ज्यादा अच्छा यह है कि अव्ययसंज्ञा द्वारा नामत्व लाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है, अत: टा प्रत्यय भी नहीं होगा । 'उसका प्रत्युतर देते हुए श्रीहेमहंसगणि तथा श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यहाँ अव्यय संज्ञा करके नामत्व लाकर, टा प्रत्यय का लोप करने से पदत्व आता है। इससे 'तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ' १/३/१४ से 'म्' का अनुस्वार भी होता है, अन्यथा 'म्नां धुड्वर्गेऽन्त्यो.....' १/३/३९ से अन्त्य व्यञ्जन ही होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy