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________________ १४० न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) ॥५६॥ अपवादात्क्वचिदुत्सर्गोऽपि ॥ अपवाद् से भी क्वचित् उत्सर्ग बलवान् होता है । उदा. 'मख गतौ' धातु से 'मखन्ति स्वर्गं गच्छन्ति अनेन इति मखः' और 'मठ निवासे' 'मठन्ति निवसन्ति छात्रादयोऽत्र इति मठः' इत्यादि प्रयोग में 'व्यञ्जनाद् घञ्' ५/३/१३२ से होनेवाला 'घञ्' रूप आपवादिक प्रत्यय का बाध करके, इस न्याय से औत्सर्गिक घ प्रत्यय 'नाम्नि घः' ५/ ३/१३० से होता है । __मख, मठ इत्यादि प्रयोग की सिद्धि के लिए अन्य कोई प्रयत्न नहीं किया गया है, वह इस न्याय का ज्ञापक है । यदि यह न्याय न होता तो अपवाद रूप 'व्यञानाद् घञ्'५/३/१३२ से 'घञ्' प्रत्यय होकर, मख, मठ के स्थान पर 'माख, माठ' इत्यादि अनिष्ट रूप होते । इस न्याय की अनित्यता का संभव नहीं है क्योंकि इस न्याय का स्वरूप ही अनित्य है । यद्यपि इस न्याय का समावेश 'नानिष्टार्था शास्त्रप्रवृत्तिः' ।।५७।। न्याय में हो सकता है क्योंकि इस न्याय का स्वरूप ही अनित्य और लक्ष्यानुरोधि है । अतः जहाँ इष्ट हो वहाँ ही यह न्याय प्रवृत्त होता है अन्यथा इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होता है। पाणिनीय व्याकरण में 'क्वचिदपवादविषयेऽप्युत्सर्गोऽभिनिविशते' न्याय भी इस न्याय के अर्थ का बोधक है । यहाँ सिद्धहेम में इस न्याय से केवल उत्सर्गशास्त्र का बलवत्त्व बताया गया है, उससे इतना ही सिद्ध होता है कि कुछेक स्थानों में अपवादशास्त्र की प्रवृत्ति नहीं होती है। यह न्याय भी चान्द्र को छोड़ कर सभी परिभाषासंग्रहों में प्राप्त है। ॥५७॥ नानिष्टार्था शास्त्रप्रवृत्तिः ॥ अनिष्ट प्रयोजन या प्रयोग के लिए शास्त्रप्रवृत्ति नहीं होती है । शास्त्र का मतलब क्या ? शास्त्र अर्थात् सूत्र या न्याय । इस व्याकरण के सूत्र और व्याकरणशास्त्र सम्बन्धित न्याय की प्रवृत्ति अनभिप्रेत अर्थ की सिद्धि के लिए नहीं होती है। शास्त्र अर्थात् सूत्र और न्याय शिष्ट प्रयोग की सिद्धि के लिए ही है। अनिष्ट प्रयोग की सिद्धि का प्रतिबन्ध/निषेध करने के लिए यह न्याय है। सूत्र की प्रवृत्ति अनिष्ट प्रयोग के लिए नहीं होती है, वह इस प्रकार है । 'नयति, णींग प्रापणे' धातु गित् होने से 'ईगितः' ३/३/९५ से फलवान् कर्ता की विवक्षा में आत्मनेपद सिद्ध होने पर भी ‘कर्तृस्थामूर्ताऽऽप्यात्' ३/३/४० से णींग् धातु से आत्मनेपद किया, वह नियम के लिए हुआ क्योंकि 'सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः ॥' और वह नियम इस प्रकार होता है कि - यदि णींग् धातु का कर्म कर्ता में ही हो और वह अमूर्त अर्थात् अरूपी हो, केवल बुद्धिगम्य हो तभी ही णीग् धातु से आत्मनेपद होता है । उदा. 'श्रमं विनयते ।' ( वह श्रम दृर करता है) किन्तु कर्ता में स्थित कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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