SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) नहीं, अतः 'ईच्' में अनेकवर्णत्व का अभाव माना जायेगा। यह न्याय न्यायसंग्रह के पूर्वकालीन परिभाषा-संग्रह में शाकाटायन के परिभाषापाठ में पूर्णतः उपलब्ध है । जबकि व्याडि के परिभाषासूचन व परिभाषापाठ में केवल अनेकवर्णत्व (अनेकाल्त्व) और असारूप्य अंश ही है, अनेकस्वरत्व अंश नहीं है । तो चान्द्र में केवल अनेकवर्णत्व अंश ही प्राप्त है । जैनेन्द्रपरिभाषावृत्ति में इस न्याय के स्थान पर 'नानुबन्धकृतं हलन्तत्वम्' न्याय है, जो कहीं भी प्राप्त नहीं है । कातन्त्र की दुर्गसिंहकृत परिभाषावृत्ति और कातन्त्रपरिभाषापाठ तथा कालाप परिभाषापाठ, शाकटायन, चान्द्र, व्याडिकृत परिभाषासूचन आदि में 'उच्चरितप्रध्वंसिनोऽनुबन्धाः' न्याय भी प्राप्त है । इस न्याय से सूचित होता है कि अनुबन्ध, प्रकृति या प्रत्यय का अवयव नहीं होता है। ॥३५॥ समासान्तागम-संज्ञा-ज्ञापक-गण-ननिर्दिष्टान्यनित्यानि ॥ 'समासान्त, आगम, संज्ञानिर्दिष्ट, ज्ञापकनिर्दिष्ट, गणनिर्दिष्ट, ननिर्दिष्ट कार्य अनित्य है। 'यथा प्रयोगदर्शनं क्वचित्' अध्याहार समझ लेना । समासान्त, आगम, संज्ञानिर्दिष्ट, ज्ञापकनिर्दिष्ट, गणनिर्दिष्ट, ननिर्दिष्ट कार्य अनित्य है । अर्थात् साहित्य में क्वचिद् 'यथाप्रयोग' व्याकरण के सूत्र द्वारा उपर्युक्त कार्य होने की संभावना होने पर भी, नहीं होते हैं या व्याकरण के सूत्र से जिस प्रकार होना चाहिए वैसा न होकर, अन्य प्रकार के होते हैं। 'सर्वं वाक्यं सावधारणम्' न्याय से 'समासान्त' इत्यादि कार्य में प्राप्त नित्यत्व का निषेध करने के लिए यह न्याय है। समासान्तविधि-: 'बढ्य आपो यस्मिन् तद् बह्वपं सरः' । यहाँ 'ऋक्पू:पथ्यपोऽत्' ७/३/ ७६ से 'अत्' समासान्त होगा । जबकि 'बढ्य आपो येषु सरस्सु तानि बह्वाम्पि, बह्वम्पि' प्रयोग में 'ऋक्पू:पथ्यपोऽत्' ७/३/७६ से प्राप्त समासान्तविधि अनित्य होने से, सब अनुकूल संयोग/निमित्त होने पर भी नहीं होगा । यह समासान्तविधि अनित्य होने का सूचन 'ऋकपू:पथ्यपोऽत्' ७/३/७६ सूत्रगत 'अपो' निर्देश से होता है । यदि समासान्तविधि नित्य ही होती तो ‘पथ्यपोऽत्' के स्थान पर ‘पथ्यपादत्' निर्देश किया होता । आगमविधि-: आगमविधि भी अनित्य है । उदा. 'पट्टा, पटिता', यहाँ 'पटि' धातु सेट होने से नित्य 'इट' की प्राप्ति है तथापि विकल्प से 'इट्' का आगम हुआ है। 'पक्ता, पचिता, आस्कन्तव्यम्, आस्कन्दितव्यम् । यहाँ ‘पच्' और 'स्कन्द्' धातु अनिट है क्योंकि उनमें अनुस्वार की इत् संज्ञा हुई है । तथापि वहीं विकल्प से 'इट' हुआ है । 'धाव्' धातु 'ऊदित्' होने 'वेट' है, तथापि 'धावितः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy