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________________ ९८ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) नहीं होने से, वही 'घ्यण' प्रत्यय 'असरूपोऽपवादे वोत्सर्गः प्राक् क्तेः' ५/१/१६ से अपवाद स्वरूप 'क्यप्' प्रत्यय के विषय में होनेवाला ही था, तो पक्षमें अर्थात् 'क्यप' नहीं होगा तब 'घ्यण' प्रत्यय करने के लिए सूत्र में 'वा' का ग्रहण क्योंकिया ? अर्थात् न करना चाहिए, तथापि 'वा' का ग्रहण किया, इससे सूचित होता है कि इस न्याय से 'घ्यण' और 'क्यप्' परस्पर असदृश नहीं है, अतः अपवाद स्वरूप 'क्यप्' प्रत्यय से औत्सर्गिक 'घ्यण' प्रत्यय पूर्णतया/सर्वथा बाधित होगा और 'असरूपोऽपवादे' ....५/१/१६ से भी ‘ध्यण' नहीं होगा, इसलिए विकल्प किया है, अतः जब 'क्यप्' नहीं होगा तब 'घ्यण' नि:संकोच होगा। अनुबन्धकृत अनेकस्वरत्व भी यहाँ स्वीकार्य नहीं है, जैसे 'डुपचीए पाके' धातुपाठ में 'पच्' इसी स्वरूप में उक्त होने से, अनुबन्ध के कारण, यदि उसे अनेकस्वरयुक्त मानेंगे तो, परोक्षा में 'पपाच' रूप के स्थान पर 'धातोरनेकस्वरादाम्'.....३/४/४६ से 'ण' आदि का 'आम्' होगा और बाद में 'कृ, भू' और 'अस्' धातु के परीक्षा के रूपों का अनुप्रयोग होगा। किन्तु अनुबन्धकृत अनेकस्वरत्व यहाँ स्वीकार्य न होने से, परोक्षा-प्रत्यय पर में आने पर 'पपाच' आदि रूप होंगे। "निन्द-हिंस-क्लिश-खाद-विनाशि-व्याभाषासूयानेकस्वरात्' ५/२/६८ सूत्र में 'निन्द' आदि धातुओं के ग्रहण से इस अंश का ज्ञापन होता है । यदि अनुबन्धकृत अनेकस्वरत्व मान्य होता तो 'निन्द' आदि प्रत्येक धातु धातुपाठ में अनेकस्वरयुक्त ही हैं क्योंकि धातुपाठ में "णिदु कुत्सायाम्, हिसु हिंसायाम्' के रूप में पाठ किया गया है अतः सूत्र के अन्त में आये हुए 'अनेकस्वरात्' शब्द से इन सब धातुओं का ग्रहण हो जाता तो उन धातुओं को अलग से कहने की कोई आवश्यकता नहीं थी, तथापि 'निन्द' आदि धातुओं का पृथक् ग्रहण किया इससे सूचित होता है कि अनुबन्धकृत अनेकस्वरत्व स्वीकार्य नहीं होने से ये सब धातु एकस्वरयुक्त ही माने जाते हैं। अनुबन्धकृत अनेकवर्णत्व भी यहाँ मान्य नहीं है। उदा. 'घुणि भ्रमणे' और 'वन भक्तौ' धातु में 'मन्-वन्-क्वनिप्-विच् क्वचित्' ५/१/१४७ से 'वन्' प्रत्यय होने पर घ्वावा, 'वावा' रूपों की सिद्धि करते वख्त 'वन्याङ् पञ्चमस्य' ४/२/६५ से धातु के अन्त्य व्यञ्जन का 'आङ्' आदेश होता है । इस सूत्र में धातु के लिए 'पञ्चमस्य' शब्द का प्रयोग किया है । 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ परिभाषा से यहाँ 'पञ्चमान्त' धातु लेना और 'पञ्चमस्य' शब्द में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होने से यहाँ 'षष्ठ्यान्त्यस्य' ७/४/१०६ परिभाषा से पञ्चमान्त धातु के अन्त्यव्यञ्जन का 'आङ्' आदेश होगा किन्तु 'आङ्' आदेश उसके 'इ' अनुबन्ध के कारण यदि अनेकवर्णयुक्त माना जाय तो 'षष्ठ्यान्त्यस्य' ७/४/१०६ परिभाषा के स्थान पर 'अनेकवर्णः सर्वस्य'७/४/१०७ परिभाषा से समग्र पञ्चमान्त धातु का ही 'आङ्' आदेश हो जाता, किन्तु यहाँ अनुबन्धकृत अनेकवर्णत्व मान्य नहीं होने से 'आङ्' आदेश अनेकवर्णयुक्त नहीं माना जाएगा किन्तु 'आ' स्वरूप एक ही वर्णवाला कहा जाएगा । अत एव 'अनेकवर्णः सर्वस्य' ७/४/१०७ से समग्र/संपूर्ण पंचमान्त धातु का 'आङ्' आदेश नहीं होने से 'षष्ठ्यान्त्यस्य' ७/४/१०६ परिभाषा से केवल अन्त्यव्यञ्जन का ही 'आङ्' आदेश होगा। 'ष्या पुत्रपत्योः केवलयोरीच् तत्पुरुषे' २/४/८३ सूत्र में 'ष्या' का 'ईच्' आदेश करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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