SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. २८ ) प्रकार है- 'सापेक्षस्याऽपि नञः सविधिर्भवति ।' 'सविधि' अर्थात् 'समास विधि ।' और यह न्याय लोकसिद्ध या स्वाभाविक ही है, किन्तु विशिष्ट वचन स्वरूप नहीं है क्योंकि लोक में 'अनीलघटमानय' कहने से 'नीलघट' के अलावा अन्य घट ही लायेगा किन्तु घटभिन्न अन्य पदार्थ विद्यमान होने पर भी नहीं लायेगा । ऐसा व्यवहार लोक में सामान्यतया प्रसिद्ध ही है । यह न्याय कातन्त्र की भावमिश्रकृत परिभाषावृत्ति को छोड़कर सर्वत्र उपलब्ध है । किन्तु कहीं भी विशेष प्रकार से विवेचन नहीं किया गया है । ॥२८॥ उक्तार्थानामप्रयोगः ॥ जो अर्थ एक बार कहा गया हो, उसका पुनः प्रयोग नहीं करना चाहिए । जो अर्थ अर्थात् अभिधेय पदार्थ, अन्य प्रत्यय द्वारा उक्त हो, तो उसी अर्थ / पदार्थ को बताने के लिए पुनः 'द्वितीया' आदि विभक्ति का प्रयोग नहीं करना । उदा. 'क्रियते कटोऽनेन' इत्यादि प्रयोग में 'कर्म' आदि अर्थ में उत्पन्न ' क्य' प्रत्यय और आत्मनेपद के प्रत्यय द्वारा 'कर्म' शक्ति स्पष्टरूप से दृष्टिगोचर होती है, अतः उसी कर्मशक्ति को बताने के लिए 'कट' आदि शब्द से पुनः 'द्वितीया' आदि विभक्ति नहीं होगी किन्तु केवल अर्थ बताने के लिए 'नाम्नः प्रथमैक' ...२/२/३१ से प्रथमा विभक्ति ही होगी । जबकि 'अक्ष्णा काणः, पदा खञ्जः' इत्यादि प्रयोग में 'काणत्व, खञ्जत्व' आदि का, आँख, पैर के अलावा अन्यत्र सम्भव ही नहीं है अर्थात् केवल 'काणः, खञ्जः 'आदि कहने से ही काम चल सकता है, तथापि वहाँ 'यद्भेदैस्तद्वदाख्या' २/२/४६ सूत्र से होनेवाले तृतीया विभक्त्यन्त पद 'अक्ष्णा, पदा' आदि का प्रयोग होता है वह केवल लोकरूढि से ही होता है । लोकरूढि का किसी भी प्रकार से निवारण नहीं हो सकता है । अतः 'क्रियते कटोऽनेन' इत्यादि प्रयोग में वैसा न हो, इसलिए यह न्याय है । ८३ 'रषृवर्णात् ' २/३/६३ सूत्रगत 'एक' शब्द का नियमत्व, इस न्याय का ज्ञापक है । यहाँ 'एक' शब्द का 'नियमत्व' इष्ट है और वह विधि में बाधकत्व बताने के बाद ही सिद्ध हो सकता है क्योंकि 'विधि' और 'नियम' दोनों में 'विधि' बलवान् या 'ज्यायान्' श्रेष्ठ है । उसका बाधकत्व इस प्रकार बताया जा सकता है । - .... Jain Education International यदि 'एक' शब्द से केवल 'एकत्व' रूप विधि अर्थ ही लेना होता तो 'ह्रस्वोऽपदे वा' १/ २/२२ में जैसे 'अपदे' में सप्तमी - एकवचन से निर्देश किया है वैसे यहाँ भी 'एकपदे' के स्थान पर, केवल 'पदे' कहा होता तो भी 'एकत्व' रूप विध्यर्थ होता ही किन्तु एकवचन के प्रयोग से ही 'एकत्व' उक्त हो जाता है, अतः इसके लिए 'एक' शब्द रखना नहीं चाहिए ऐसा यह न्याय कहता है । तथापि 'एक' शब्द रखा, उससे सूचित होता है कि यहाँ 'एकत्व' रूप विध्यर्थ नहीं है किन्तु वह नियमार्थत्व के लिए है और इस न्याय के आश्रय बिना उत्पन्न नहीं हो सकता है, अतः 'एक' शब्द का नियमार्थत्व इस न्याय का ज्ञापक है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy