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________________ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) स्थानिवद्भाव नहीं होगा तथा 'नानिष्टार्था शास्त्रप्रवृत्तिः' न्याय से, यहाँ स्थानिवद्भाव करने से अनिष्ट रूपसिद्धि होती है, अतः स्थानिवद्भाव नहीं करना चाहिए । इस समाधान का स्वीकार हो सकता है, तथापि यहाँ 'पूर्वस्याऽस्वे स्वरे-' ४/१/३७ सूत्र का आरम्भ करने से ही स्थानिवद्भाव का अभाव सिद्ध हो सकता है । अतः इस प्रकार वृथा प्रयत्न नहीं करना चाहिए, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी का कथन है । 'परिभाषेन्दुशेखर' में भी नागेश ने सूत्रारम्भ के सामर्थ्य से ही द्वित्व होने के बाद, उत्तर के स्वरादेश का स्थानिवद्भाव के निषेध की सिद्धि की है। प्रस्तुत न्याय के न्यास में श्रीहेमहंस- गणि ने भी 'इयेष' उदाहरण की निर्बलता का स्वीकार किया है । उनके मतानुसार भी 'बभूवुषा' ही श्रेष्ठ उदाहरण है तथापि लघुन्यासकार के मतानुसार यहाँ यह दिया है। श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यह न्याय पूर्वन्याय के 'जात' अंश का ही बाधक है, किन्तु समकालप्राप्त अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग सम्बन्धित ‘असिद्वत्व' का अभाव करता नहीं है क्योंकि ऐसा करने पर 'ओमाङि' १/२/१८ सूत्रगत 'आङ्ग्रहण' व्यर्थ हो जाता है। अतः पाणिनीय परम्परानुसार पूर्वन्याय के 'एकदेश' का ही बाध करता है किन्तु सम्पूर्ण न्याय का बाध करता नहीं है । जबकि सिद्धहेम की परम्परा में पूर्वन्याय केवल 'जात' बहिरङ्ग कार्य को असिद्ध करता है, अत: संपूर्ण न्याय का, इस न्याय से बाध होता है । समकालप्राप्त अन्तरङ्ग बहिरङ्ग कार्य में 'अन्तरङ्ग बहिरङ्गात् ' न्याय का उपयोग होता है, अतः उसका बाध इस न्याय से नहीं होता है । इस न्याय के ज्ञापन से पूर्वन्याय की अनित्यता दिखायी पड़ती है, ऐसा श्रीहेमहंसगणि का कथन है । इसके बारे में श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि इस तरह प्रस्तुत न्याय से पूर्वन्याय की अनित्यता मालूम होती हो तो, केवल पूर्वन्याय को अनित्य कहने से, इस न्याय का कार्य हो जाता है, अत: इसके लिए यह न्याय न करना चाहिए । किन्तु यह बात सही नहीं है। इस प्रकार पूर्वन्याय की अनित्यता की कल्पना से ही 'अन्तरङ्गानपि विधीन् बहिरङ्गो यप् बाधते ।' इत्यादि न्याय भी व्यर्थ होंगे। ॥२२॥ गौणमुख्ययोर्मुख्य कार्यसम्प्रत्ययः ॥ 'गौण' और 'मुख्य' दोनों का ग्रहण सम्भव हो तो, मुख्य का ग्रहण करना । 'मुख्य' की प्रबलता बताने के लिए यह न्याय है। उदा. 'चरणस्य स्थेणोऽद्यतन्यामनुवादे' ३/१/१३८ सूत्र में 'स्थेणोर्मुख्यकर्तुश्चरणस्य', व्याख्या की है। 'चरणस्य....' ३/१/१३८ सूत्र का अर्थ इस प्रकार है । वही, वही, वेदशाखा का अध्ययन करनेवाला ब्राह्मण या कोई जातिविशेष 'कठ' आदि कहा जाता है। अन्य प्रमाण से प्राप्त अर्थ को शब्दों से बताना/कहना, अनुवाद है । वैसा अनुवाद हो तो, अद्यतनी में, 'स्था' और 'इण्' धातु के कर्ता, यदि 'चरण, कठ' आदि होने पर, उनके सजातीय के साथ हुआ द्वन्द्व समास, 'समाहार द्वन्द्व' होता है। उदा. 'प्रत्यष्ठात्कठकालापम्, उदगात्कठकौथुमम्' । इन दो वाक्यों में अनुक्रम से कठकालापम्' Jareducation International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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