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________________ ६६ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) है कि यहाँ 'वहिष्ट्व' शब्द बहिरङ्गवाचक होने से 'अन्तरङ्गे' पद उपस्थित हो ही जाता है, क्योंकि बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग अन्योन्य दोनों की अपेक्षा रहती है, अतः भाष्य की व्याख्या से यहाँ 'अन्तरङ्गे' शब्द की उपस्थिति होती है, ऐसा न कहना चाहिए । संक्षेप में, पाणिनीय परम्परा में न्याय / परिभाषा को एक-दूसरे से बिल्कुल स्वतन्त्र मानते हैं, जबकि सिद्धहेम की परम्परा में समानविषयक न्याय, एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं और पूर्व के न्याय में से, अगले न्याय में शाब्दिक अनुवृत्ति आती है और वे एक-दूसरे के बाध्य - बाधक भी बनते हैं । इस न्याय की अनित्यता क्यों नहीं है ? यह न्याय, पूर्वन्याय की प्रवृत्ति का बाध करता है, किन्तु वह बाध केवल अनिष्ट स्थान पर ही होता है अर्थात् पूर्वन्याय से जहाँ अनिष्ट प्रयोग सिद्ध होता हो, वहाँ ही इस न्याय की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार यह न्याय पूर्वन्याय की अप्रवृत्ति का मात्र / केवल सूचक ही है अतः इस न्याय की अनित्यता का संभव नहीं है । इस न्याय के उदाहरणों में 'इयेष' उदाहरण भी दिया है, किन्तु उसमें कुछ दोष है, अतः वह निर्बल बनता है, इसकी चर्चा श्रीहेमहंसगणि ने न्यास में की है, किन्तु, उसमें से कुछेक तर्कों का श्रीलावण्यसूरिजी ने खंडन किया है । इष् + णव् ( परोक्षा.....३/३/१२) इष् इष् + णव् (द्विर्घातुः परोक्षा - .....४/१/१) इ इष् + णव् (व्यञ्जनस्यानादेर्लुक् ४/१/४४) इ एष् + णव् (अ) ( लघोरुपान्त्यस्य ४ /३/४) इय् एष् + अ ( पूर्वस्यास्वे स्वरे.....४ / १ / ३७ ) इयेष श्रीमहंसगणि कहते हैं कि 'इयेष' रूप में 'ए' का 'असिद्धं बहिरङ्ग - ' न्याय से जो असिद्धत्व प्राप्त होता है, उसकी इस न्याय से निवृत्ति होती है, तथापि पूर्व 'इ' का 'इय्' आदेश नहीं हो सकता है, क्योंकि 'स्वरस्य परे प्राग्विधौ ' ७/४/११० से 'ए' का अवश्य स्थानिवद्भाव होगा ही । उसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि इस प्रकार यहाँ स्थानिवद्भाव का संभव नहीं है, क्योंकि 'स्वरस्य परे'७/४/११० परिभाषा में 'परे' शब्द में सप्तमी विभक्ति है और 'सप्तम्या (निर्दिष्टे) पूर्वस्य' ७/४/ १०५, परिभाषा में कहा है कि 'सप्तमी' से निर्दिष्ट जो कार्य होता है, वह अव्यवहित पूर्व को ही होता । अतः यहाँ 'सप्तमी' से निर्दिष्ट स्थानिवद्भाव अव्यवहित पूर्व स्वर का ही होगा। यहाँ 'ए' और 'णव्' प्रत्यय के बीच 'ष् ' का व्यवधान है, अतः स्थानिवद्भाव नहीं होगा, अर्थात् यहाँ 'एत्व' अनन्तरपरनिमित्तक होने पर ही स्थानिवद्भाव होगा, जैसे 'कथयति' में 'कथ' के 'अ' का लोप, अनन्तरपरनिमित्त 'णि' के कारण ही 'अत: ' ४/३/८२ सूत्र से होता है । उसका स्थानिवद्भाव करने से 'ञ्णिति' ४/३/५० से होनेवाली 'उपान्त्यवृद्धि' नहीं होगी, किन्तु यह बात सही प्रतीत नहीं होती है, क्योंकि 'लघोरुपान्त्यस्य' ४ / ३ / ४ सूत्र में 'अक्ङिति' में सप्तमी होने पर भी, अव्यवहित पूर्व का गुण होता ही नहीं, क्योंकि उपान्त्य लघु स्वर, 'अकिङित् ' प्रत्यय से अव्यवहित पूर्व में कदापि होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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