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________________ प्रथम वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. १९ ) ५७ यदि ऐसा न मानें तो इसी सूत्र के बाद आनेवाले 'वेटोऽपत: ' ४/४/६२ में 'एकस्वराद' की अनुवृत्ति नहीं होगी । अपने मत के समर्थन में श्रीलावण्यसूरिजी 'डीयश्व्यैदित: - ' ४/४/६१ की वृत्ति का उल्लेख करके कहते हैं कि 'नरीनृत्तः' जैसे स्थल पर अनेकस्वरत्व होने पर भी एकस्वरनिमित्तक 'इट्' प्रतिषेध हुआ है । इस प्रकार यहाँ एकस्वरनिमित्तक कार्य का 'यङ्लुपि अप्रवृत्ति' अंश में भी बाध होता है । यहाँ 'एकस्वरनिमित्तक' कार्य अंश में और 'अनुबन्धनिर्दिष्ट' अंश में किस प्रकार बाध होता है, उसको समझाते हुए वे कहते हैं कि "यदि 'ऐदित्करण' के सामर्थ्य से ऐदित् निमित्तक' ही इट् का प्रतिषेध मानने पर 'अनुबन्धनिर्देश' और 'एकस्वरनिमित्त' इन दोनों अंशों में अनित्यत्व आयेगा और यदि 'ऐदित्करण' के सामर्थ्य से ' अनेकस्वरत्व' होने पर भी 'एकस्वरनिमित्तक' रूप 'डीयश्व्यैदितः'४/४/६१' या 'वेटोऽपतः ' ४/४/६२ की प्रवृत्ति का स्वीकार करने पर केवल 'एकस्वरनिमित्त' अंश में ही अनित्यता आयेगी । परिणामतः दो में से, किसी भी प्रकार से केवल 'अनुबन्धनिर्देश' अंश में इसी उदाहरण द्वारा अनित्यता बतायी नहीं जा सकती है । यह न्याय यद्यपि व्याडि के परिभाषासूचन, परिभाषापाठ, शाकटायन परिभाषापाठ इत्यादि कुछेक परिभाषासंग्रहों में उपलब्ध नहीं है । तथापि पाणिनीय परंपरा के महाभाष्य में इसकी विस्तृत चर्चा पायी जाती है । और यह न्याय भाष्य अविरुद्ध होने से इसका स्वीकार करना चाहिए । ॥१९॥ सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य ॥ 'संनिपातलक्षणविधि' अपने निमित्त का घात करती नहीं है तथा उसमें 'निमित्त' भी नहीं बनती है । 'सन्निपतति - सङ्गच्छते कार्यमस्मिन्निति सन्निपातो निमित्तम्, तल्लक्षणं चिह्नं यस्य स सन्निपातलक्षणः । कोऽर्थः ? निमित्तरूपमव्यभिचारि चिह्नं दृष्ट्वा निर्णीतप्रवृत्तिकः, स्वनिमित्तादुद्भूत इति यावत् । स विधिस्तस्य प्रस्तावात् स्वनिमित्तस्य विघाते निमित्तं न स्यात् ।' श्रीहेमहंसगणि ने बताया हुआ इस न्याय का यही अर्थ बहुत क्लिष्ट और अस्पष्ट है । 'कातन्त्र' की परभाषावृत्ति में 'सन्निपातलक्षण विधि' की व्याख्या सब से सरल और स्पष्ट शब्दों में दी है। 'यो यमाश्रित्य उत्पद्यते स तं प्रति सन्निपातः ।" जो जिसके आश्रय से / आधार पर उत्पन्न होता है, वह उसके प्रति 'सन्निपात' कहा जाता है । यही 'सन्निपात' जिसका निमित्त है, वैसी विधि, 'सन्निपातलक्षणविधि' कही जाती है । यही 'सन्निपातलक्षणविधि 'अपने निमित्त का घात करती नहीं है । यदि ऐसी विधि से अपने निमित्त का घात होता हो, तो इसकी प्रवृत्ति नहीं होती है । पाणिनीय तन्त्र की परिभाषावृत्ति में 'संनिपातलक्षणविधि' की व्याख्या इस प्रकार दी गई है - 'यस्यानन्तर्येण यो विहितः तद् आनन्तर्यमसौ न विरुणद्धि' ( परिभाषासङ्ग्रह पृष्ठ २२९ ) 'जो, जिसके आनन्तर्य से उत्पन्न हुआ है, वह, उसके आनन्तर्य का विरोध नहीं करता है । १. कातंत्र-भावमिश्रकृतपरिभाषावृत्ति, परिभाषा क्र.नं. १२, ( परिभाषासंग्रह, पृ. ६८ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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