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________________ ११०] पार्श्वनाथचरित [१८, ७हैं; जिन्होंने पाँचों इन्द्रियोंको भारी देषोंसे दूर रखा है, जो हलकी कषाय वाले हैं; जो पुरुष सुखी-मन हैं तथा जो दूसरोंके दोषोंको ग्रहण नहीं करते _ वे मनुष्य सुकृत कर्मके फलसे भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं । वे विविध विलासोंमें क्रीडा करनेके पश्चात् सुरोंके सुख भोगते हैं ॥६॥ .. अढ़ाई-द्वीपमें १७० कर्ममूमियाँ __सहस्रों समरोंमें शक्तिशाली शत्रुओंका नाश करनेवाले प्रभंजन ( नृप ), मैं अब कर्मभूमियोंके बारे में बताता हूँ; सुनो। ( अढ़ाई द्वीपमें ) एक सौ सत्तर क्षेत्र सुने गये हैं। उन्हें कर्मभूमि कहा गया है। वहाँ दुखित मनुष्य उत्पन्न होते हैं। वे कर्मभूमिमें उत्पन्न कहे जाते हैं । ये कर्मभूमियाँ अढ़ाई-द्वीप समुद्रोंमें स्थित हैं। जिनेन्द्रोंने यह कथन किया है । मेरुके पूर्व और पश्चिमकी ओर सुशोभित विदेहोंमें सोलह-सोलह विजय (क्षेत्र ) होते हैं। पाँच भरत और पाँच ऐरावत होते हैं । ( इनमेंसे प्रत्येक ) वैताढ्योंके द्वारा छह खण्डोंमें विभाजित रहता है । ये एक-एक मेरुसे सम्बन्धित रहते हैं तथा पाँच ( के सम्बन्ध ) से एक सौ सत्तर प्राप्त होते हैं। ये कर्मभूमियाँ विशेष विचार करनेवाले समस्त विद्याधरों और जिनवरों द्वारा उक्त प्रकारसे बताई शुभ और अशुभ इन दोमेंसे जो भी कर्म मनुष्यों द्वारा पृथिवीपर किया जाता है उसका फल इस संसाररूपी भीषण सागरमें भोगना पड़ता है ॥७॥ दुष्कर्मोंका फल भोगनेके लिए जीवकी कर्मभूमियों में उत्पत्ति हे पृथिवीके पालक प्रभंजन नृप, अब तुम कर्मभूमियोंमें मनुष्यके दारुण दुख सुनो। इस लोकमें पापी और मूर्ख पुरुष जन्म जन्मान्तरमें दारिद्रय, व्याधि, जरा और मृत्युसे पीड़ित देखे जाते हैं । वे पूर्वमें किये गये दुष्कृतोंका अनुभव करते हैं, जन्मान्तरको व्यर्थ गँवाते हैं तथा दुख सहते हैं। उनकी देह कपड़ा तथा वस्त्रसे विहीन तथा उनका सुख रस एवं खान-पानसे रहित रहता है । जिस-जिस कर्मके फलसे मनुष्यगति होती है उस-उसको मैं क्रमसे और पूर्णरूपसे बताता हूँ । जिनमें थोड़ा भी धर्म शोभित होता है, जो इस लोकमें सम्यक्त्वसे रहते हैं, जिनका भाव सीधा-सरल और निर्मल होता है तथा जो संयम-नियम नहीं लेते पर पाप नहीं करते वे जीव मनुष्य योनिको जाते हैं । उन्हें नारकीय तथा तिग्गति नहीं मिलती। हे नराधिप, मैंने संक्षेपमें मनुष्यगतिकी (प्राप्तिकी) विधि बता दी । इसे समझकर धर्ममें प्रवृत्त होओ, जिससे तुम्हें .. शिव-सुखकी निधि प्राप्त हो ॥८॥ सुरगतिका वर्णन __ हे प्रभंजन नृप, अब तुम सुरगतिके बारेमें सुनो तथा उसे मनमें धारण करो। चार प्रकारके देव समूहोंके निवास स्थान भवन, वान, ज्योतिष और कल्पालय हैं । भवनवासी दस प्रकारके तथा व्यन्तर आठ प्रकारके कहे गये हैं । ज्योतिषी पाँच प्रकारके और विमानवासी सोलह प्रकारके बताये गये हैं। देव-रूपसे सम्पन्न तथा प्रभूत लावण्य और कान्तिसे परिपूर्ण होकर क्रीड़ा करते हैं । वे देव सोलह प्रकार के आभूषणोंसे विभूषित रहते हैं तथा उत्कृष्ट लेपोंसे चर्चित होकर रमण करते हैं । वे असंख्य देवियोंके साथ रहते हैं तथा सागर और पल्यकी अवधि तक निवास करते हैं ( = जीवित रहते हैं ) । दर्शनविहीन तथा आसक्त सुर भी दृष्टिगोचर होते हैं तथा कान्ति, रूप, ( उत्तम ) स्वर रहित भी देव रहते हैं। उन्हें मानस-दुख होता है। उतना दुष्कर (दुख ) नरकमें ही प्राप्त हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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