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________________ १६, ६] [६५ अनुवाद है। तदनन्तर आरण और अच्युत ( कल्पोंके ) महान सर बावीस सागर पर्यन्त क्रीडा करते हैं। इसके ऊपर क्रमशः ) एक-एक अधिक जानो जबतक कि आयुप्रमाण तेतीस सागर तक न पहुँचे। इस प्रकारसे स्वर्ग में जो आयुका प्रमाण है - . "" पाक) महान् सुर बावास सागर पर्यन्त क्रीड़ा करते हैं। इसके ऊपर ( के विमानोंमें वह बताया । देवियोंकी आयुका मान पल्योंमें बताया गया है।। इस प्रकारसे, लोक और अलोकको प्रकाशित करनेवाले, समभाव धारी तथा भुवन द्वारा सेवित ( जिनवर ) ने मुनियों, गणधरों, (अन्य ) मनुष्यों तथा समस्त देवोंको ऊर्ध्वलोकके बारेमें संक्षेपमें बताया ॥६॥ १ ज्योतिष्कदेवोंके प्रकार, उनकी आयु आदि अब नक्षत्रोंकी पंक्तियोंके बारेमें सुनो। मैं उन्हें उसी प्रकारसे बताता हूँ जिस प्रकारसे वे गगनतलमें विभाजित हैं। (आकाशमें ) सात सौ नब्बे योजन लाँघनेके उपरान्त समस्त तारासमूह स्थित है, मानों गगनमें फूलोंका गुच्छा रखा हो । अन्धकारका निवारण करनेवालोंके ग्रह, नक्षत्र, सूर्य, शशि और तारागण ये पाँच भेद हैं। तारागणके ऊपर दिनकर स्थित है तथा उसके ऊपर चन्द्रमा । तदनन्तर चलायमान एवं मनोहर नक्षत्रपंक्ति और फिर निरन्तर क्रमसे बुध एवं मंगल (1 असुरमंत्रि (= शुक्र),फिर संवत्सर ग्रह (= गुरु) और उसके भी ऊपर शनिश्चर कहा गया है। राहु और केतु ध्रुवके पास क्रीड़ा करते हैं। दूसरे उपग्रह भिन्न-भिन्न प्रकारसे स्थित हैं। चन्द्रकी आयु गणनाके अनुसार एक पल्य तथा एक लाख वर्ष सुनी गयी है । सूर्यकी आयु एक सहस्र वर्ष अधिक एक पल्य कही गयी है । जीव ( = बृहस्पति ) की आयु सौ वर्ष अधिक एक पल्य तथा शेष ( ग्रहों ) की एक पल्य है । स्वर्गमें सुखपूर्वक निवास करनेवाले तारागण पल्यके आठवें भाग ( की अवधि तक ) जीवित रहते हैं । गगनारूढ़, उदय तथा अस्त करनेवाले, लोकोंमें स्फूर्तिका संचार करनेवाले तथा मनुष्यों के मन और नयनोंको सुहावने लगनेवाले समस्त तारागण रवि और चन्द्र के पीछे-पीछे घूमते हैं ॥७॥ व्यंतरदेवोंके प्रकार, उनका निवास आदि व्यन्तर देव बहुत प्रकारके हैं तथा अनेक प्रदेशोंमें निवास करते हैं। किन्नर, गरुड़, यक्ष, गन्धर्व, भूत, पिशाच, बल और दर्प युक्त राक्षस, वानप्रेत, किंपुरुष, अणोर ( ? ) पन्नग देव, सिद्ध तथा शौण्डीर ( आदि व्यन्तरदेवोंके प्रकार हैं )। इनमेंसे कुछ मत्सरयुक्त वेलंधरके रूपमें उत्पन्न हैं और अनेक व्यन्तर दुर्धर हैं। इनमें से कुछ अचलेन्द्र के शिखरोंपर, कुल पर्वतोंपर तथा वनोंमें, कन्दराओंमें और गुफाओंमें निवास करते हैं; कुछ कराल पर्वत-शिखरोंपर तथा विशाल और सहस्र पखुड़ियोंवाले कमलोंमें रहते हैं; कुछ नदी, वृक्षों और हेमनिर्मित तोरणोंसे सुशोभित गृहोंमें वास करते हैं तथा कुछ धवलगृहोंमें, उद्यानोंमें, आकाशतलमें तथा ऊँचे-ऊँचे विमानों में निवास करते हैं। विविध सुखोंके कारण अभिमानयुक्त अनेक व्यन्तर देव इन समस्त प्रदेशोंमें निवास करते हैं। वे बलके कारण दर्पशील ( व्यन्तरदेव ) दस सहस्र वर्षकी आयु और कुछ एक पल्यकी आयु ( पाकर ) काल व्यतीत करते हैं ॥८॥ भवनवासीदेवोंके प्रकार, उनकी आयु गिरिराजके तले जो दुर्निवार जग है उसमें दस प्रकारके भवनवासीकुमार ( देव ) हैं। असुरकुमारदेव अत्यन्त मत्सरयुक्त तथा नागकुमार दर्पशील हैं। सुपर्णकुमार विशाल देहवाले तथा सागरकुमार मणियोंसे युक्त मुकुटों द्वारा शोभित हैं । भौमकुमार सुखकी लालसा भरे होते हैं। वायुकुमार संसारमें शोभा देते हैं। दिक्कुमार रूपसे जगको तिरस्कृत करते हैं। अग्निकुमार भी विकार युक्त होते हैं। विद्युत्कुमार वीर और विद्युत्की प्रभावाले होते हैं तथा उदधिकुमार धीर किन्तु सुखके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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