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________________ ३४ चउप्पन्नमहापुरिसचरिय २६१ टि. ३, २६३ टि. ४, २६४ टि. ४ एवं ९, २६६ टि. ८, २७७ टि. ५, २७८ टि. ५ एवं १० - ये टिप्पणियां जिन पाठों पर दी गई हैं वे 'सू' प्रतिमें अधिक प्राप्त होनेवाले पाठ-सन्दर्भ हैं। इन सन्दर्भोके अभावमें भी अर्थानुसन्धान बराबर सुरक्षित रहा है, अतः उनका यहाँ ख़ास तौर पर अलग उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त शुद्धिकी दृष्टि से भी आदिसे अन्त तक अनेक स्थानों पर इस प्रतिके पाठ महत्त्वके ज्ञात हुए हैं। प्रस्तुत प्रतिकी वाचनाका स्वीकार मुद्रणमें अक्षरशः किया है, और जहाँ जहाँ 'जे' संज्ञक प्रतिके पाठ शुद्ध अथवा वास्तविक लगे वहाँ प्रस्तुत प्रतिके पाठोंको नीचे टिप्पणीके रूपमें रख दिये हैं। इस प्रतिका आकार-प्रकार ज्ञात हो सके इस दृष्टिसे इसके अन्तिम पत्र (३७६ ) का चित्र भी इस ग्रन्थमें दिया गया है। 'जे' संज्ञक प्रति जेसलमेर( राजस्थान )के किलेमें अवस्थित चिन्तामणि-पार्श्वनाथ-जैनमन्दिर के भूमिघरमें स्थित, 'बडाभंडार' के नामसे प्रसिद्ध, खरतरगच्छीय आचार्य श्रीजिनभद्रसूरिसंस्थापित (विक्रमका १५ वा शतक) जैन ज्ञानभंडारकी यह ताड़पत्रीय प्रति है। 'जेसलमेरुस्थ-जैन-ताड़पत्रीय-ग्रन्थभण्डार-सूचिपत्र (जैन श्वेताम्बर कॉन्फन्स, बम्बई द्वारा प्रकाशित) में इसका क्रमांक २३७ है । इसमें कुल ३२४ पत्र हैं । ३२१ ३ पत्रके दूसरे पृष्ठमें मूल ग्रन्थ तथा लेखककी पुष्पिका पूर्ण हो जाती है। पत्र ३२२ से ३२४ तकमें इस प्रतिको लिखानेवाले गृहस्थकी प्रशस्ति आती है । इसकी लम्बाई - चौड़ाई २९४" x २३" है। प्रतिका अधिकांश भाग अशुद्ध लिखा गया है, फिर भी प्रस्तुत सम्पादनमें उपयुक्त 'सू' संज्ञक प्रतिके अनेक पाठोंके स्थान पर अधिक उपयोगी हो सके ऐसे भी सैकड़ों पाठ इस प्रतिमेंसे प्राप्त हुए हैं । इस प्रकार पूरक प्रतिके रूपमें इसका इस सम्पादनमें एक विशिष्ट स्थान है। जिस प्रतिके ऊपरसे प्रस्तुत प्रति लिखी गई है वह बीचमेंसे खण्डित होगी तथा उसका पत्रांक सूचक कोई-कोई भाग भी नष्ट हो गया होगा जिससे एक-दो स्थानों पर पीछेके पन्ने आगेके पन्नोंमें मिल गये होंगे। कारणोसे भाषासे अनभिज्ञ लेखकने मानो ग्रन्थ सम्पूर्ण हो ऐसा समझकर समग्र ग्रन्थकी प्रतिलिपि की है। इसमें अनेक स्थानों पर 'ण'के बदले न और 'चेव'के बदले चेय लिखा मिलता है। ___वि. सं. १२२७के मार्गशीर्ष शुक्ला ११ और शनिवारके दिन गूर्जरेश्वर कुमारपाल और वाधुवल अमात्यके समयमें पालउद्रग्रामके निवासी आनन्द नामक लेखकने यह प्रति लिखी है,' और साधारण नामक पुत्रसे युक्त हौम्बटकुलीन पार्श्वकुमार नामक श्रेष्ठीने अपनी पुत्रवधू शीलमती तथा पौत्र नागदेवके कल्याणके लिए यह प्रति लिखवाई है। प्रति लिखानेवालेकी प्रशस्तिवाला भाग ( पत्र ३२२ से ३२४ ) घिसा हुआ और दुर्वाच्य है तथा अबतक प्रसिद्ध भी नहीं हुआ । संशोधन-क्षेत्रमें अविरत व्यस्त रहनेवाले पूज्यपाद विद्वद्रत्न आगमप्रभाकर मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजीने अपने विद्वन्मण्डलके साथ जेसलमेरमें लगभग डेढ़ वर्ष तक रहकर (वि. सं. २००६-७) वहाँके भण्डारोके पुनरुद्धारार्थ जो ज्ञानयज्ञ किया था उस समय उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ लिखानेवालेकी प्रशस्ति पढ़ी थी और वह 'जेसलमेरुस्थ जैन ताड़पत्रीय प्रन्थभण्डार सूचिपत्र' में छपवाई भी है । प्रस्तुत सूचिपत्रमें प्रकाशित वह सम्पूर्ण प्रशस्ति नीचे उद्धृत की जाती है ............प्येकवद्रे मार्गे सद्यो जडा अपि जनाः परिसश्चरन्ति । अन्तः स्फुरन्ति किल वाङ्मयतत्त्वसारास्तामिन्दुधामधवलां गिरमानतोऽस्मि ॥ १॥ १ देखो पृ. ३३५, टि. ४ । २ जेसलमेरके भण्डारोंको पूर्णरूपसे सुरक्षित एवं सुव्यवस्थित करके वहाँके महत्त्वपूर्ण प्रन्योको माइक्रोफिल्म एवं अनेक ग्रन्थोंकी प्रतिलिपि कराने तथा पाठमेद आदि लेनेके लिए पू. मुनि श्री पुण्यविजयजीकी प्रेरणासे पाटननिवासी सेठ श्री केशवलाल किलाचन्दमाईके अथक प्रयत्नके फलस्वरूप जैन श्वेताम्बर कॉन्मन्सने लगभग पचास हजार रूपयों का प्रबन्ध किया था। इसके परिणामस्वरूप भण्डारों की भत्युत्तम सुरक्षा एवं सुव्यवस्था हो सकी है और सैकड़ों ग्रन्थोंकी प्रतिलिपि एवं उनके पाठभेद आदि भी लिये जा सके हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001442
Book TitleChaupannamahapurischariyam
Original Sutra AuthorShilankacharya
AuthorAmrutlal Bhojak, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages464
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size14 MB
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