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________________ प्राकृतपैंगलम् का छन्दः शास्त्रीय अनुशीलन तुक ही अधिक पाई जाती है, दोनों के कुछ उदाहरण ये हैं : (१) कंत - मंत (१.६), (२) वलंत - उल्हसंत (१.७), (३) देहि-लेहि (१.९), (४) झंपिअ - कंपिअ (१.९२), (५) संजुत्तेपुत्ते (१.९२), (६) असरणा-भअकरणा-असुरअणा-तिहुअणा (१.९६) (७) 'हारा - संसारा; फुरंता - कंता (१.९८), (८) धरणु- चरणु (१.१०४), (९) दिण्हउ - लिहड, थप्पिअ-अप्पिअ (१.१२८), (१०) चले - पले-बले - पले (१.१९८) । अपूर्णक के निदर्शन बहुत कम हैं, कुछ उदाहरण 'चंदमुही- काइणही' (१.१३२), 'धारा - मोरा' (२.८९), 'अहीसुमुही' (२.१०२), 'वाईसा णाएसा' (२.११२) हैं । मध्ययुगीन हिंदी कवियों ने प्रायः तुक की पाबंदी का सदा ध्यान रक्खा है। तुलसीदास के समग्र मानस में केवल एक स्थान पर अपूर्ण तुक 'वेद - विनोद' (लंकाकांड, दोहा ११७) देखने में आती है। हिंदी कवियों ने प्रायः सानुस्वार अ, इ, उ, ऋ का परस्पर तुक में अभेद माना है। तुलसी के मानस से इसके उदाहरण ये हैं :- 'कंज-पुंज' (बालकांड दो० ५), 'वृंद - कंद' (वही, दो० १०५), 'वृंद-मुकुंद (लं० का० दो० १०३ ) । इसी तरह सानुनासिक स्वर तथा अननुनासिक स्वरों को भी तुक में अभिन्न माना गया है । तुलसी तथा बिहारी से दोहों के कतिपय उदाहरण ये हैं । तुलसी (मानस) – पिसाच साँच (बा० दो० ११४), भाँति-जाति (वही. दो० २१३), 'साँव - राजीव (उत्तर का दो० १९). बिहारी हाति-भाँति (दो० २६), विनासु-माँसु (२७३), माहिँ - लाहि (२६६), भेंट - समेटि (५४२), खरौँटखोट (६१० ). बिहारी सतसई के लाला भगवानदीन वाले संस्करण में 'जोति-होत ' (१३४), 'राति-जात' (४९०), 'टारि-मार' (५५३) की तुक भी पाई जाती है, जो इनके 'जोत, रात, टार' या 'होति, जाति, मारि' जैसे वैकल्पिक उच्चारणों का संकेत करती हैं। अन्यत्र वहीं 'राति जाति' (४९७), 'जोति- होति' (३६०) जैसी तुक भी देखने को मिलती है । सवैया तथा कवित्त में तुक व्यवस्था का खास महत्त्व है । प्रायः कविगण सवैया तथा कवित्त में द्वयक्षर या त्र्यक्षर तुक को ही पसंद करते हैं। सवैया तथा कवित्त में एकाक्षर तुक बड़ी भद्दी तथा कर्णकटु लगती है। तुलसी की कवितावली की कुछ तुकों की तुलना से यह स्पष्ट हो सकेगा कि द्वयक्षर या त्र्यक्षर तुकें अधिक संगीतात्मक तथा कलात्मक बन पड़ी हैं : सवैया की तुक : Jain Education International (१) लै-है-कै-मै (अयोध्या० १३ ). द्वै-वै-है- च्वै (अयो० ११) (२) माहीँ - पढाहीँ - छाही - नाहीँ (बाल० १७). जाको-ताको - साको-काको (बाल. १७). पाई - लुगाई - सुहाई - नाई ( अयो० १ ). (३) निकसे-धिकसे - (जा) तक से विकसे (बाल. १) (४) पहरी है - हरी है-बहरी है-हहरी है. (लंका० २९) कवित्त की तुक :- (१) गही कही-सही रही (बाल. १९). घेरी-फेरि टेरि-हेरि (अयो० १० ). (२) पालि री - दालि री-कालि री- आलि री ( बाल० १२ ) . गावती - सिखावती - पावतीँ लावतीँ (बाल० १३). उदार हैं-केहार है - कुमार हैं - चित्रसार हैँ (अयो० १४ ). पलु गो- कुल गो-बलु गो- अचलु गो (किष्कि० १). (३) जटनि के पटनि के छटनि के घटनि के ( अयो० १६). खलक मेँ - हलक में छलक में पलक मेँ (लंका० २५). १. बिहारी के दोहों की क्रमांक संख्या लाला भगवानदीन वाले ५२७ For Private संस्करण से दी गई है। - Personal Use Only लेखक www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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