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________________ ४८ अंगविज्जापइण्णयं इस प्रकार की भीतें अच्छी नहीं समझी जाती थीं । मृष्ट, शुद्ध और दृढ़ दीवारों को प्रशस्त माना जाता था । घृत तेल रखने की बड़ी गोल (केला = कयला = अलिञ्जर), मणि, मुक्ता, हिरण्य मंजूषा, वस्त्रमंजूषा, दधि, दुग्ध, गुड़-लवण आदि रखने के अनेक पात्र-ये सब नाना प्रकार के अपाश्रयों के भेद कहे गये हैं (पृ० ३०) । स्थित नामक दसवें पटल में अट्ठाईस प्रकार से खड़े रहने के भेद कहे गये हैं। फिर आसन, शयन, यान, वस्त्र, आभूषण, पुष्प, फल, मूल, चतुष्पद, मनुष्य, उदक, कर्दम, प्रासादतल, भूमि, वृक्ष आदि के सान्निध्य में खड़े होकर प्रश्न करने के फलाफल का निर्देश किया गया है (पृ० ३१-३३) । ग्यारहवें पटल में नेत्रों की भिन्न भिन्न स्थिति और उनके फलाफल का विचार है (पृ० ३४-३५) । बारहवें पटल में चौदह प्रकार के हसित या हँसने का निर्देश करते हुए उनके फल का कथन है (पृ. ३५-३६) । तेरहवें पटल में विस्तार से पूछनेवाले या प्रश्नकर्ता की शरीर-स्थिति और उससे संबंधित शुभाशुभ फल का विचार किया गया है (पृ० ३७-३८) । चौदहवें पटल में वंदन करने की विधि को आधार मानकर इसी प्रकार का विचार है (पृ० ३८-३९) । प्रश्नकर्ता व्यक्ति जिस प्रकार का संलाप करे उसे भी फलाफल का आधार बनाया जा सकता है - इस बात का पन्द्रहवें पटल में निर्देश है (पृ० ४०-४१) । इस प्रकार के बीस संलाप कहे गये हैं जो अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष-इन चार भागों में बाँटे जा सकते हैं । पुष्प, फल, गन्ध, माल्य आदि मांगलिक वस्तुओं के संबंध की चर्चा अर्थसिद्धि की सूचक है । ऐसी ही अनेक प्रकार की कथा या बातचीत के फल का निर्देश किया गया है । सोलहवें पटल में आगत अर्थात् आगमन के प्रकारों से शुभ-अशुभ फल सूचित किये गये हैं (पृ० ४१-४२) । सत्रहवें पटल से तीसवें पटल तक रोने-धोने, लेटने, आने-जाने, जंभाई लेने, बोलने आदि से फलाफल का कथन है (पृ० ४२-५६) । किन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से इस अंश का विशेष महत्त्व नहीं है। नौवें अध्याय की संज्ञा अंगमणी है। इसमें २७० विषयों का निरूपण है। पहले द्वार में शरीर सम्बन्धी ७५ अंगों के नाम और उनके शुभाशुभ फल का कथन है । विभिन्न प्रकार के मनुष्य, देवयोनि, नक्षत्र, चतुष्पद, पक्षी, मत्स्य, वृक्ष, गुल्म, पुष्प, फल, वस्त्र, भूषण, भोजन, शयनासन, भाण्डोपकरण, धातु, मणि एवं सिक्कों के नामों की सूचियाँ हैं । वस्त्रों में पटशाटक, क्षौम, दुकूल, चीनांशुक, चीनपट्ट, प्रावार, शाटक, श्वेत शाट, कौशेय और नाना प्रकार के कम्बलों का उल्लेख है । पहनने के वस्त्रों में इनका उल्लेख है-उत्तरीय, उष्णीष, कंचुक, वारबाण (एक प्रकार का कंचुक), सन्नाह पट्ट (कोई विशेष प्रकार का कवच), विताणक और पच्छत (संभवतः पिझेरी जो पीठ पर डाल कर सामने की ओर छाती पर गठिया दी जाती थी, जैसा मथुरा की कुछ मूर्तियों में देखा जाता है), मल्लसाडक (पहलवानों का लंगोट) (पृ. ६४) । आभूषणों के नामों की सूची अधिक रोचक है (पृ० ६४-६५) । किरीट और मुकुट सिर पर पहनने के लिए विशेष रूप से काम में आते थे । सिंहभंडक वह सुन्दर आभूषण था जिसमें सिंह के मुख की आकृति बनी रहती थी और उस मुख में से मोतियों के झुग्गे लटकते हुए दिखाए जाते थे । मथुरा की मूर्तियों में ये स्पष्ट मिलते हैं । गरुडक और मगरक ये दो नाम मथुराकला में पहचाने जा सकते हैं । मथुरा के कुछ मुकुटों में गरुड़ की आकृति वाला आभूषण पाया जाता है । मगरक वही है जिसे बाणभट्ट और दूसरे लेखकों ने मकरिका या सीमंत-मकरिका कहा है। दो मकरमुखों की आकृतियों को मिलाकर यह आभूषण बनाया जाता था और दोनों के मुख से मुक्ताजाल लटकते हुए दिखाए जाते थे। इसी प्रकार बैल की आकृति वाला वृषभक, हाथी की आकृति वाला हत्थिक, और चक्रवाक मिथुन की आकृति से युक्त चक्रकमिथुनक (चक्ककमिहुणग) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001439
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size12 MB
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