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________________ ५४ . के. आर. चन्द्र अध्ययनों में से कितने ही ऐसे प्रयोग यहाँ पर प्रस्तुत हैं ही । इस ग्रन्थ पर तो मध्यवर्ती नकार का प्रायः णकार होने का नियम घटित ही नहीं होता है, सर्वत्र की तो बात ही कहाँ रही । मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का प्रायः लोप होने का नियम भी इस ग्रन्थ पर लागू नहीं होता है । इसका अर्थ यही है कि इस ग्रन्थ की हस्तप्रतों में कालक्रम से शब्दों के मध्यवर्ती व्यंजनों मे इतना ध्वनि-परिवर्तन नहीं हुआ जितना अन्य अर्धमागधी आगम-ग्रन्थों की हस्तप्रतों में हुआ है । इसी कारण 'इसिभासियाई' की भाषा मे शब्दों के मध्यवर्ती मूल व्यंजन अधिक प्रमाण में बचे हुए हैं । (IV) आचारांग से उदाहरण अ शुब्रिग संस्करण ( सूत्र नं. म. जै. वि. के संस्करण से । ) अनिच्चयं १.१.५.४५, विनस्सइ १.२.३.७९, १.२.४.८२, अभिनिव्वत्तेज्जा १.३.४.१३०, अनिहे १.४.३.१४१, अनियाणा १.४.३.१४२, अनवयमाणे १.५.२.१५२, अनिहे १.५.३.१५८, विनिविट्ठचित्ते १.२.१.६३, १.६.१.१७८, अभिनिव्वट्टा १.६.१.१८१, अभिनिक्खन्ता १.६.१.१८१, अनिहे १.६.५.१९७, अनिसटुं. १.८.२.२०४, आनक्खेस्सामि १.८.५.२१९, अभिनिव्वुडच्चे १.८.६.२२४, अभिनिव्वुडे १.९.४.३२२ इत्यादि । (ब) आगमोदयसमिति संस्करण परिनिव्वाणं १.१.६.५०, अपरिनिव्वाणं १.१.६.५०, अपरिनिव्वाणं १.४.२.१३३, अनियट्टगामीणं १.४.४.१३७, बहुनडे १.५.१. १४५, अनुगच्छन्ति १.५.५.१६१, अभिनिव्वुडा १.६.१.१७९, अभिनिकता १.६.१.१७९, परिनिव्वुडे १.६.५.१९५, अभिनिवुडच्चे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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