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________________ ६८ अमितगतिविरचिता ददाति या निजं देहं संस्कृत्य चिरपालितम् । रक्ताया द्रविणं तस्या ददत्याः कोऽपि न श्रमः ।।८० वासरैनवदशैरपि रक्ता जारलोकनिवहाय वितीयं । खादति स्म सकलं धनराशि किंचनापि भवने न मुमोच ॥८१ कामबाणपरिपूरितदेहा सा चकार वसति' हतबुद्धिः । कुप्यभाण्डधनधान्यविहीनां मूषकव्रजविहारधरित्रीम् ॥८२ सर्वतोऽपि विजहार विशङ्का संयुता विटगणैर्मदनार्ता । यत्र तत्र पेशकर्मविषक्ता नचिकी वृषभर्मदनातैः ॥८३ पत्युरागममवेत्य विटौघैः सा विलुण्ठ्य सकलानि धनानि । मुच्यते स्म बदरी दरयुक्तैस्तस्करैरिव फलानि पथिस्था ॥८४ सा विबुध्य दयितागमकालं कल्पितोत्तमसतीजनवेषा। तिष्ठति स्म भवने त्रपमाणा' वञ्चना हि सहजा वनितानाम् ॥८५ ८०) १. शृङ्गारसहितं विधाय । ८२) १. गृहम्। ८३) १. भ्रमति स्म । २. क मैथुनकर्म । ३. नूतनगौः, रजस्वला गौः; गाय । ८४) १. क पुरुषैः । २. भययुतैः । ३. क पंथीजनाः । ८५) १. लज्जमाना। जो स्त्री चिरकालसे रक्षित अपने शरीरको अलंकृत करके जार पुरुषोंके लिए दे सकती है उस अनुरागिणीको भला धन देने में कौन सा परिश्रम होता है ? कुछ भी नहीं ॥८॥ इस प्रकारसे अनुरक्त होकर कुरंगोने नौ-दस दिनमें ही उन जार पुरुषोंके समूहको समस्त धनकी राशिको देकर खा डाला और घरमें कुछ भी नहीं छोड़ा ।।८।। उस मूर्खाने कामसे सन्तप्त होकर अपने घरको वस्त्र-बर्तन और धन-धान्यसे रहित कर दिया-उन जार पुरुषोंके लिए सब कुछ दे डाला। अब वह घर केवल चूहोंके घूमनेफिरनेका स्थान बन रहा था ॥८२॥ वह कुरंगी कामसे पीड़ित होती हुई निर्भय होकर जार पुरुषोंके साथ सब ओर घूमनेफिरने लगी और जहाँ-तहाँ पशुओं जैसा आचरण इस प्रकारसे करने लगी जिस प्रकार कि उत्तम गाय कामसे पीड़ित अनेक बैलोंके साथ किया करती है ।।८३॥ तत्पश्चात् जब जारसमूहको उसके पतिके आनेका समाचार ज्ञात हुआ तब भयभीत होते हुए उन सबने उसके समस्त धनको लूटकर उसे इस प्रकारसे छोड़ दिया जिस प्रकार कि भयभीत चोर फलोंको लूटकर मार्गकी बेरीको छोड़ देते हैं ॥८४॥ तब कुरंगीने पतिके आनेके समयको जानकर अपना ऐसा वेष बना लिया जैसा कि वह उत्तम पतिव्रताजनोंका हुआ करता है। फिर वह लज्जा करती हुई भवनके भीतर स्थित हो गयी। ठीक है-धोखा देना, यह स्त्रियों के स्वभावसे ही होता है ।।८५।। ८०) अ ब या ददाति; क ड इ रक्तापि। ८१) ब क ड इ भुवने। ८२) अ ब मूषिक । ८३) अ निषक्ता नैचकीव । ८४) अ विलुम्प्य; अ बदरैर्दर, बदरीवर । ८५) ब सावबुध्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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