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________________ धर्मपरीक्षा-२० ३३५ आरम्भाः प्राणिनां सर्वे प्राणत्राणाय सर्वदा। यतस्ततः परं श्रेष्ठं न प्राणित्राणदानतः ॥२६ धर्मार्थकाममोक्षाणां जीवितं कारणं यतः। ततो दाने' न कि दत्तं तस्य मोक्षेन किं हृतम् ॥२७ न मृत्युभीतितो भीतिदृश्यते भुवने ऽधिका। यतस्ततः सदा कायं देहिनां रक्षणं बुधैः ॥२८ धर्मस्य कारणं गात्रं तस्य' रक्षा यतोऽन्नतः । अन्नदानं ततो देयं जन्मिनां धर्मसंगिनाम् ॥२९ विक्रीय येन दुभिक्षे तनुजानपि वल्लभान् । आहारं गृह्णते पुंसामाहारस्तेन वल्लभः ॥३० क्षुद्दुःखतो देहवतां न दुःखं परं यतः सर्वशरीरनाशि। आहारदानं ददता प्रदत्तं हृतं न कि तस्य विनाशनेन ॥३१ २७) १. जीवितव्यस्य दाने दत्ते सति । २. मुष स्तेये। २९) १. गात्रस्य । २. धर्मिणाम् । ३१) १. आहारविनाशनेन । प्राणियों के द्वारा जो भी सब आरम्भ किये जाते हैं वे सब चूंकि निरन्तर अपने प्राणरक्षणके लिए ही किये जाते हैं, अतएव प्राणत्राणदानसे-अभयदानसे-श्रेष्ठ दूसरा कोई भी दान नहीं है ।।२६।। - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोंका कारण चूंकि जीवितका बना रहना है, अतएव उक्त जीवितके प्रदान करनेपर क्या नहीं दिया ? अर्थात् सब कुछ ही दे दिया। इसके विपरीत उक्त जीवितका अपहरण करनेपर-घात करनेपर-अन्य किसका अपहरण नहीं किया ? अर्थात् धर्म, अर्थ व काम आदिरूप सबका ही अपहरण कर लिया। कारण कि उनका अनुष्ठान जीवितके शेष रहनेपर हो सकता है ॥२७॥ चूंकि लोकमें मरणके भयसे और दूसरा कोई भी भय अधिक नहीं देखा जाता है; अतएव विद्वानोंको सर्वदा प्राणियोंके प्राणोंका संरक्षण करना चाहिए ॥२८॥ धर्मका कारण शरीर है, और चूँकि उसका संरक्षण अन्न ( भोजन ) से ही होता है; इसलिए धर्मात्मा जनोंके लिए उस अन्नका दान अवश्य करना चाहिए ॥२९।। दुष्कालके पड़नेपर चूँकि मनुष्य अपने अतिशय प्रिय पुत्रोंको भी बेचकर भोजनको ग्रहण किया करते हैं, अतएव उन्हें सबसे प्यारा वह आहार ही है ॥३०॥ प्राणीके भूखके दुखसे अधिक अन्य कोई भी दुख नहीं है । कारण यह कि वह भूखका दुख सब ही शरीरको नष्ट करनेवाला है। इसीलिए जो आहारदानको देता है उसने उक्त भूखके दुखको नष्ट करके क्या नहीं दिया है ? अर्थात् वह प्राणीके क्षुधाजनित दुखको दूर करके सब कुछ ही दे देता है ॥३१॥ २७) ब तस्या मोक्षे न कि हतम् । २९) ड इ धर्मसंज्ञिनाम् । ३०) अ तनूजानपि ; ड तनयानपि । ३१) ब क देहवतो; अ ब ततो for हृतम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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