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________________ - ~ धर्मपरीक्षा-१९ ३२५ यद्देशस्यावधिं कृत्वा गम्यते न दिवानिशम् । ततः परं बुधैरुक्तं द्वितीयं तद् गुणवतम् ॥७७ पूर्वोदितं फलं सर्व ज्ञेयमत्र विशेषतः। विशिष्ट कारणे कायं विशिष्ट केन वार्यते ॥७८ पञ्चधानर्थदण्डस्य धर्मार्थानुपकारिणः । पापोपकारिणस्त्यागो विधेयो ऽनर्थमोचिभिः ॥७९ शिखिमण्डलमार्जारसारिकोशुककुक्कुटाः। जीवोपघातिनो धार्याः श्रावकैनं कृपापरैः ॥८० ८०) १. मयूरः। २. शालिका। दिग्व्रतमें जीवनपर्यन्त स्वीकृत देशके भीतर भी कुछ नियत समयके लिए मर्यादा करके तदनुसार दिन-रातमें उस मर्यादाके बाहर नहीं जाना, इसे पण्डित जनोंने दूसरा देशवत नामका गुणव्रत कहा है ।।७७॥ पूर्वमें दिग्वतका जो फल-महाव्रतादि-कहा गया है उसे यहाँ भी विशेष रूपसे जानना चाहिए । ठीक है-विशिष्ट कारणके होनेपर विशिष्ट कार्यको कौन रोक सकता है ? अर्थात् कारणकी विशेषताके अनुसार कार्यमें भी विशेषता हुआ ही करती है ।।७८॥ जो पाँच प्रकारका अनर्थदण्ड धर्म और अर्थ पुरुषार्थों का अपकार तथा पापका उपकार करनेवाला है-धर्म व धनको नष्ट करके पापसंचयका कारण है-उसका अनर्थदण्डव्रतकी अभिलाषा करनेवाले श्रावकोंको परित्याग कर देना चाहिए । विशेषार्थ-जिन क्रियाओंके द्वारा बिना किसी प्रकारके प्रयोजनके ही प्राणियोंको पीड़ा उत्पन्न होती है उन्हें अनर्थदण्ड नामसे कहा जाता है। वह अनर्थदण्ड पाँच प्रकारका है-अपध्यान, पापोपदेश, हिंसोपकारिदान, प्रमादचर्या और दुःश्रुति । राग व द्वेषके वशीभूत होकर आत्म-प्रयोजनके बिना दूसरे प्राणियोंके वध-बन्धन और जय-पराजय आदिका विचार करना, यह अपध्यान नामका अनर्थदण्ड कहलाता है। अपना किसी प्रकारका प्रयोजन न होनेपर भी दूसरोंके लिए ऐसा उपदेश देना कि जिसके आश्रयसे वे हिंसाजनक पश-पक्षियोंके व्यापारादि कार्योंमें प्रवृत्त हो सकते हों उसका नाम पापोपदेश अनर्थदण्ड है। अग्नि, विष एवं शस्त्र आदि जो हिंसाके उपकारक उपकरण हैं उनका अपने प्रयोजनके बिना ही दूसरोंको प्रदान करना; इसे हिंसोपकारिदान नामक अनर्थदण्ड जानना चाहिए। निष्प्रयोजन ही पृथिवीका कुरेदना, जलका बखेरना, अग्निका जलाना और पत्र-पुष्पादिका छेदना; इत्यादिका नाम प्रमादचर्या है। जिन कथाओंसे राग-द्वेषादिके वशीभूत हुए प्राणीका चित्त कलुषित होता हो उनके सुननेको दुःश्रुति अनर्थदण्ड कहा जाता है। श्रावकको उक्त पाँचों अनर्थदण्डोंका परित्याग करके अनर्थदण्डवत नामक तृतीय गुणवतको स्वीकार करना चाहिए ।।७।। इसके साथ ही श्रावकोंको दयाई होकर जीवोंका घात करनेवाले (हिंसक) मयूर, कुत्ता, बिल्ली, मैना, तोता और मुर्गा आदि पशु-पक्षियों को भी नहीं पालना चाहिए ।।८।। ७९) धर्मान्धानुप। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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