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________________ २९० अमितगतिविरचिता कामेन येन निजित्य सर्वे देवा विडम्बिताः । से कथं शम्भुना दग्धस्तृतीयाक्षिकृशानुना ॥८५ ये रागद्वेषमोहादिमहादोषवशीकृताः। ते वदन्ति कथं देवा धर्म धर्माथिनां हितम् ॥८६ न देवा लिङ्गिनो धर्मा दृश्यन्ते ऽन्यत्र निर्मलाः । ते यानिषेव्य जीवेन प्राप्यते शाश्वतं पदम् ॥८७ देवो रागी यतिः संगी धर्मो हिंसानिषेवितः। कुर्वन्ति काक्षितां लक्ष्मी जीवानामतिदुर्लभाम् ॥८८ ईदृशी हृदि कुर्वाणा धिषणां सुखसिद्धये । ईदृशों किं न कुर्वन्ति निराकृतविचेतनाः ॥८९ वन्ध्यास्तनंधयो राजा शिलापुत्रो महत्तरः। मृगतृष्णाजले स्नातः कुर्वते' सेविताः श्रियम् ॥९० ८५) १. कामः। ८७) १. शासने। ८८) १. ईदृग्देवादयः। ९०) १. राजादया। जिस कामदेवने सब देवोंको पराजित करके तिरस्कृत किया था उस कामदेवको शंकरने अपने तीसरे नेत्रसे उत्पन्न अग्निके द्वारा भला कैसे भस्म कर दिया ? ॥८५॥ इस प्रकारसे जो ब्रह्मा आदि राग, द्वेष एवं मोह आदि महादोषोंके वशीभूत हुए हैं वे देव होकर-मोक्षमार्गके प्रणेता होते हुए-धर्माभिलाषी जनोंके लिए हितकारक धर्मका उपदेश कैसे कर सकते हैं ? नहीं कर सकते हैं ऐसे रागी द्वेषी देवोंसे हितकर धर्मके उपदेशकी सम्भावना नहीं की जा सकती है ।।८६॥ हे मित्र ! इस प्रकार दूसरे किसी भी मतमें ऐसे यथार्थ देव, गुरु और धर्म नहीं देखे जाते हैं कि जिनकी आराधना करके प्राणी नित्य पदको-अविनश्वर मोक्षसुखको-प्राप्त कर सके ॥८७॥ रागयुक्त देव, परिग्रहसहित गुरु और हिंसासे परिपूर्ण धर्म; ये प्राणियों के लिए उस अभीष्ट लक्ष्मीको करते हैं जो कि दूसरोंको प्राप्त नहीं हो सकती है। इस प्रकारसे जो अज्ञानी जन सुखकी प्राप्ति के लिए विचार करते हैं वे उसका इस प्रकार निराकरण क्यों नहीं करते हैं-[यदि रागी देव, परिग्रहमें आसक्त गुरु और हिंसाहेतुक धर्म अभीष्ट सिद्धिको करते हैं तो समझना चाहिए कि ] बन्ध्याका पुत्र राजा, अतिशय महान् शिलापुत्र और मृगतृष्णाजलमें स्नान किया हुआ; इन तीनोंकी सेवा करनेसे वे लक्ष्मीको प्राप्त करते हैं। अभिप्राय यह है कि बन्ध्याका पुत्र, शिला (पत्थर) का पुत्र और मृगतृष्णा ( बालु) में स्नान ये जिस प्रकार असम्भव होनेसे कभी अभीष्ट लक्ष्मीको नहीं दे सकते हैं उसी प्रकार उक्त रागी देव आदि भी कभी प्राणियोंको अभीष्ट लक्ष्मी नहीं दे सकते हैं ।।८८-९०॥ ८५) भ सर्वदेवा । ८७) ड ते ये निषेव्य । ८८) अ जीवानामन्य । ८९) क यदि for हृदि; अ निराकृतिम् । ९०) अ महत्तमः; ब स्नाति, क जलस्नातः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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