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________________ धर्मपरीक्षा-१७ २८७ आत्मना विहितं पापं कषायवशतिना। दीक्षया क्षीयते क्षिप्रं केनेदं प्रतिपद्यते ॥६७ सकषाये यदि ध्याने शाश्वतं लभ्यते पदम् । वन्ध्यातनूजसौभाग्यवर्णने द्रविणं तदा ॥६८ नेन्द्रियाणां जयो येषां न कषायविनिग्रहः। न तेषां वचनं तथ्यं विटानामिव विद्यते ॥६९ ऊर्ध्वाधोद्वारनिर्यातो भविष्यामि जुगुप्सितः। इति ज्ञात्वा विदार्याङ्गं जनन्या यो विनिर्गतः ॥७० मांसस्य भक्षणे गृद्धो दोषाभावं जगाद यः । बुद्धस्य तस्य मूढस्य कोदृशी विद्यते कृपा ॥७१ कायं कृमिकुलाकोणं व्याघ्रभार्यानने कुधीः।। यो निचिक्षेप जानानः संयमस्तस्य' कीदृशः ॥७२ ६७) १. कृतम् । ७०) १. निर्गतः सन् । ७१) १. आसक्तः सन् । ७२) १. बुद्धस्य । कषायके वशीभूत होकर प्राणीके द्वारा उपार्जित पाप दीक्षासे शीघ्र नष्ट हो जाता है, इसे कौन स्वीकार कर सकता है ? कोई भी विचारशील व्यक्ति उसे नहीं मान सकता है ॥६७।। ___ यदि कषायसे परिपूर्ण ध्यानके करनेपर अविनश्वर मोक्षपद प्राप्त हो सकता है तो फिर वन्ध्या स्त्रीके पुत्रके सौभाग्यका कीर्तन करनेसे धनकी भी प्राप्ति हो सकती है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार निराश्रय वन्ध्यापुत्रकी स्तुतिसे धनकी प्राप्ति असम्भव है उसी प्रकार कषाय-विशिष्ट ध्यानसे मोक्षकी प्राप्ति भी असम्भव है ॥६८॥ जिन पुरुषोंने अपनी इन्द्रियोंको वशमें नहीं किया है तथा कषायोंका दमन नहीं किया है उनका कथन व्यभिचारी जनके कथनके समान यथार्थ व हितकर नहीं हो सकता है ॥६९।। ऊर्ध्वद्वार अथवा अधोद्वारसे बाहर निकलने पर मैं घृणित व निन्दित होऊँगा, इस विचारसे जो बुद्ध माताके शरीरको विदीर्ण करके बाहर निकला तथा जिसने मांसके भक्षणमें अनुरक्त होकर उसके भक्षणमें निर्दोषताका उपदेश दिया उस बुद्धकी क्रिया-उसका अनुष्ठान-कैसा हो सकता है ? अर्थात् वह कभी भी अनिन्द्य व प्रशस्त नहीं हो सकता है ।।७०-७१॥ जिसने दुर्बुद्धिके वश होकर कीड़ोंके समूहसे व्याप्त शरीरको जानते हुए भी व्याघ्रीके मुखमें डाला उसका संयम-सदाचरण-भला किस प्रकारका हो सकता है ? अर्थात् उसका आचरण कभी प्रशस्त नहीं कहा जा सकता है ।।७२।। ६७) क ड इ दीक्षाया; । ६९) इ यथा येषां....सत्यं । ७०) ब क इ द्वारनिर्जातो। ७१) अ क्रिया for कृपा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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