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________________ २६६ अमितगतिविरचिता अन्यच्च श्रूयतां विप्राः पुत्रं दधिमुखाभिधम् । श्रीकण्ठब्राह्मणी' ख्यातं शिरोमात्रमजीजनत् ॥१९ श्रुतयः स्मृतयस्तेन निर्मलीकरणक्षमाः। स्वीकृताः सकलाः क्षिप्रं सागरेणेव सिन्धवः॥६० तेनागस्त्यो मुनिर्दष्टो जातु कृत्वाभिवादनम्। त्वयाद्य मे गहे भोज्यमिति भक्त्या निमन्त्रितः ॥६१ अगस्त्यस्तमभाषिष्ट कास्ति ते भद्र तद्ग्रहम् । मां त्वं भोजयसे यत्र विधाय परमादरम् ॥६२ तेनागद्यत कि पित्रोर्गेहं साधो ममास्ति नो। मुनिनोक्तं न ते ऽनेने संबन्धः कोऽपि विद्यते ॥६३ दानयोग्यो गृहस्थोऽपि कुमारो नेष्यते गृही। दानधर्मक्षमा साध्वी गृहिणी गृहमुच्यते ॥६४ निगोति गते तत्र तेनोक्तौ पितराविदम् । कौमार्यदोषविच्छेदो युवाभ्यां क्रियतां मम ॥६५ ५९) १. नगरे। ६१) १. वन्दनम् । २. उक्त्वा । ६३) १. गेहेन सह । ६५) १. अगस्त्ये। हे ब्राह्मणो! इसके अतिरिक्त और भी सुनिए-श्रीकण्ठ नगरमें ब्राह्मणीने दधिमुख नामसे प्रसिद्ध जिस पुत्रको उत्पन्न किया था वह केवल सिर मात्र ही था ॥५९॥ ___उसने प्राणियोंके निर्मल करने में समर्थ सब ही श्रुतियों और स्मृतियोंको इस प्रकारसे शीघ्र स्वीकार किया था जिस प्रकार कि समुद्र समस्त नदियोंको स्वीकार करता है ॥६०॥ किसी समय उसने अगस्त्य मुनिको देखकर उन्हें प्रणाम करते हुए 'आप आज मेरे घरपर भोजन करें यह कहकर निमन्त्रित किया ॥६।। इसपर अगस्त्य मुनिने पूछा कि हे भद्र ! तुम्हारा वह घर कहाँपर है, जहाँ तुम मुझे अतिशय आदरपूर्वक स्थापित करके भोजन करना चाहते हो ॥६२॥ इसके उत्तरमें वह दधिमुख बोला कि हे साधो ! क्यों माता-पिताका घर मेरा घर नहीं है । इसपर अगस्त्य ऋषिने कहा कि नहीं, उससे तेरा कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। घर में स्थित होकर भी जो कुमार है-अविवाहित है-वह दान देनेके योग्य गृहस्थ नहीं माना जाता है। किन्तु दानधर्म में समर्थ जो उत्तम स्त्री है उसे ही घर कहा जाता है ॥६३-६४|| इस प्रकार कहकर अगस्त्य ऋषिके चले जानेपर उसने अपने माता-पितासे यह कहा कि तुम दोनों मेरे कुमारपनेके दोषको दूर करो-मेरा विवाह कर दो ॥६५॥ ५९) व श्रीकण्ठम् । ६१) अ मुनिर्दृष्ट्वा; ब भक्त्याभिमन्त्रितम् । ६२) अ ब आगस्त्यः; अ निधाय । ६५) ब तेनोक्ते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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