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________________ २५० अमितगतिविरचिता अप्रसिद्धिकरी दृष्ट्वा पूर्वापरविरुद्धताम् । भारते निर्मिते व्यासः प्रेदध्याविति मानसे ॥५८ निरर्थकं कृतं कार्य यदि लोके प्रसिध्यति । असंबद्धं विरुद्धार्थ तदा शास्त्रमपि स्फुटम् ॥५९ सं ताम्रभाजनं क्षिप्त्वा जाह्नवीपुलिने ततः। तस्योपरि चकारोच्चालुकापुञ्जमूजितम् ॥६० तदीयं सिकतापुञ्ज विलोक्य सकलेजनः। परमार्थमजानानैश्चक्रिरे धर्मकाङ्क्षिभिः ॥६१ यावत्स्नानं विधायासौ वीक्षते ताम्रभाजनम् । तावत्तत्पुञ्जसंघाते न स्थानमपि बुध्यते ॥६२ पुलिनेव्यापकं दृष्ट्वा वालुकापुञ्जसंचयम् । विज्ञाय लोकमूढत्वं स श्लोकमपठोदिमम् ॥६३ दृष्टवानुसारिभिर्लोकः परमार्थाविचारिभिः । तथा स्वं हार्यते कार्य यथा मे ताम्रभाजनम् ॥६४ ५८) १. चिन्तयामास । ५९) १. प्रसिद्धीभवति । २. प्रसिध्यति । ६०) १. व्यासः । २. क गङ्गातटे। ६१) १. पुञ्जाः । ६३) १. तट। ६४) १. गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः । पश्य लोकस्य मूर्खत्वं हारितं ताम्रभाजनम् ।। भारत (महाभारत) की रचना कर चुकनेके पश्चात् उसमें निन्दाके कारणभूत पूर्वापर विरोधको देखकर व्यासने अपने मनमें इस प्रकार विचार किया-यदि विना प्रयोजनके भी किया गया कार्य लोकमें प्रसिद्ध हो सकता है तो असम्बद्ध एवं विरुद्ध अर्थसे परिपूर्ण मेरा शास्त्र-महाभारत-भी स्पष्टतया प्रसिद्ध हो सकता है ।।५८-५९।। __इसी विचारसे व्यासने एक ताँबेके पात्र (कमण्डलु) को गंगाके किनारे रखकर उसके ऊपर बहुत-सी बालुकाके समूहका ढेर कर दिया ॥६०।। उनके उस बालुकासमूहको देखकर यथार्थ स्वरूपको न जाननेवाले–अन्धश्रद्धालु जनोंने भी धर्म समझकर उसी प्रकार के बालु के ढेर कर दिये ॥६१।। इस बीच स्नान करनेके पश्चात् जब व्यासने उस ताँबेके बर्तनको देखा तब वहाँ बालुकासमूहके इतने ढेर हो चुके थे कि उनमें उस ताम्रपात्रके स्थानका ही पता नहीं लग रहा था ॥६२॥ समस्त गंगातटको व्याप्त करनेवाले उस बालुका समूहकी राशिको देखकर व लोगोंकी इस अज्ञानताको जानकर व्यासने यह इलोक पढ़ा-जो लोग दूसरेके द्वारा किये गये कार्यको ६०) ब क इ चकारोच्चं, ड चकारेत्थं; ड इ पुनसंचयम् । ६३) ब क पठीदिदम् । ६४) अ दृष्टानुसारि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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