SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३२ अमितगतिविरचिता धृतराष्ट्राय सा दत्ता पित्रा गर्भावलोकने । लोकापवादनोदाय सर्वो ऽपि यतते जनः ॥ ६० या' तथा जातं नसस्ये फलं परम् । बभूव जठरे तस्य पुत्राणां शतमूजितम् ॥ ६१ खेटः प्राह किमीदृक्षः पुराणार्थो ऽस्ति वा न वा । प्राहुनितरामस्ति को भद्रेमं निषेधति ॥६२ पनसालिङ्गने पुत्राः सन्तीत्यवितथं यदि । तदा नृस्पर्शतः पुत्र प्रसूतिवितथा' कथम् ॥ ६३ श्रुत्वेति वचनं तस्य भाषितं द्विजपुंगवः । त्वं भर्तृ स्पर्शतो जातो भद्र सत्यमिदं वचः ॥६४ तापसोयं वचः श्रुत्वा वर्षद्वादशकं स्थितः । जनन्या जठरे नेदं प्रतिपद्यामहे ' परम् ॥६५ जगाद खेचरः पूर्वं सुभद्राया' मुरद्विष । चक्रव्यूहप्रपञ्चस्य व्यधीयत निवेदनम् ॥६६ ६१) १. क धृतराष्ट्रपरिणीतया । २. फणसवृक्षस्य । ६३) १. सत्यम् । २. असत्यम् । ६५) १. न मन्यामहे । ६६) १. भगिन्याः । २. कृष्णेन । ३. कथनम् । तब पिता उसके गर्भको देखकर उसे धृतराष्ट्रके लिये दे दिया - उसके साथ वैवाहिक विधि सम्पन्न करा दी। ठीक है -लोकनिन्दासे बचने के लिए सब ही जन प्रयत्न किया करते हैं ॥ ६०॥ पश्चात् धृतराष्ट्रके द्वारा परिणीत उसने जिस विशाल पनसके फलको उत्पन्न किया उसके मध्यमें सौ पुत्र वृद्धिंगत हुए थे ॥६९॥ इस प्रकार पुराणके वृत्तको कहता हुआ मनोवेग विद्याधर बोला कि हे विप्रो ! क्या आपके पुराणों में इस प्रकारका वृत्त है कि नहीं है । इसपर वे ब्राह्मण बोले कि हे भद्र ! पुराणों में इस प्रकारका वृत्तान्त अवश्य है, उसका निषेध कौन करता है ||६|| उनके इस उत्तरको सुनकर मनोवेगने कहा कि जब पनसके साथ आलिंगन होनेपर पुत्र हुए, यह सत्य है तब पुरुषके स्पर्शसे पुत्रकी उत्पत्तिको असत्य कैसे कहा जा सकता है ? ।। ६३ ।। मनोवेग इस कथनको सुनकर वे श्रेष्ठ ब्राह्मण बोले कि हे भद्र ! पति के स्पर्श मात्र से तुम उत्पन्न हुए हो, यह तुम्हारा कहना सत्य है । परन्तु उन तापसोंके वचनको सुनकर तुम बारह वर्ष तक माताके पेट में ही स्थित रहे, इसे हम स्वीकार नहीं कर सकते हैं ।।६४-६५ ।। यह सुनकर मनोवेग बोला कि पूर्व समय में कृष्णने अपनी बहन सुभद्रा के लिये चक्रव्यूह के विस्तारके सम्बन्धमें निवेदन किया था— उसे चक्रव्यूहकी रचना और उसके ६१) ड वरं for परम्; अ ड तस्याः for तस्य । ६३ ) इ सन्तीति कथितम् । ६६) अइ विधीयेत, ड विधीयते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy