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________________ २१९ धर्मपरीक्षा-१३ कथं विधीयते सृष्टिरशरीरेण वेधसा। विधानेनोशरीरेण शरीरं क्रियते कथम् ।।८३ विधाय भुवनं सर्व स्वयं नाशयतो विधेः। लोकहत्या महापापा भवन्ती केन वार्यते ॥८४ कृतकृत्यस्य शुद्धस्य नित्यस्य परमात्मनः । अमूर्तस्थाखिलज्ञस्य कि लोककरणे फलम् ॥८५ विनाश्य करणीयस्य क्रियते कि विनाशनम् । कृत्वा विनाशनीयस्य जगतः करणेन किम् ॥८६ पूर्वापरविरुद्धानि पुराणान्यखिलानि वः। श्रद्धीयन्ते कथं विप्रा न्यायनिष्ठैर्मनीषिभिः ॥८७ दृष्टवेति गदितः खेटः क्षितिदेवाननुत्तरान् । निर्गत्योपवनं गत्वा सुहृदं न्यगदीदिति ॥८८ ८३) १. क ब्रह्मणा । २. विधानतः । ८६) १. जगतः। naa - ___इसके अतिरिक्त जब ब्रह्मा शरीरसे रहित है तब वह शरीरके विना सृष्टिका निर्माण कैसे करता है ? इसपर यदि यह कहा जाये कि वह शरीर धारण करके ही सृष्टिका निर्माण करता है तो पुनः वही प्रश्न उपस्थित होता है कि वह पूर्व में शरीरसे रहित होकर अपने उस शरीरका भी निर्माण कैसे करता है ।।८३॥ दूसरे, समस्त जगत्को रचकर जब वह स्वयं उसको नष्ट भी करता है तब ऐसा करते हुए महान् पापको उत्पन्न करनेवाली जो लोकहत्या होगी उसे कौन रोक सकता है ? उसका प्रसंग अनिवार्य होगा ।।८४॥ साथसें यह भी विचारणीय है कि जब वह परमात्मा कृतार्थ, शुद्ध, नित्य, अमूर्तिक और सर्वज्ञ है तब उसे उस सृष्टि-रचनासे प्रयोजन ही क्या है ।।८५।।। लोकको नष्ट करके यदि उसकी पुनः रचना करना अभीष्ट है तो फिर उसका विनाश ही क्यों किया जाता है ? इसी प्रकार यदि रचना करके उसका विनाश करना आवश्यक है तो फिर उसकी रचना ही क्यों की जाती है-उस अवस्थामें उसकी रचना निरर्थक सिद्ध होती है ।।८।। इस प्रकार हे ब्राह्मणो ! आपके सब पुराण पूर्वापरविरुद्ध कथन करनेवाले हैं। ऐसी अवस्थामें जो विद्वान् न्यायनिष्ठ हैं वे उनपर कैसे विश्वास करते हैं, यह विचारणीय है ॥८७|| इस प्रकार मनोवेग विद्याधरके कहनेपर जब वे विद्वान् ब्राह्मण कुछ भी उत्तर नहीं दे सके तब वह उन्हें निरुत्तर देखकर वहाँसे चल दिया और उपवनमें जा पहुँचा। वहाँ वह अपने मित्र पवनवेगसे इस प्रकार बोला ।।८।। ८७) अ इ च for वः । ८८) ड इ गदिते खेटे; अ°देवान्निरुत्तरान्....स्वमित्रं निगदी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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