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________________ १७६ अमितगतिविरचिता 'नृत्यदर्शनमात्रेण सारं वृत्तं मुमोच यः। स ब्रह्मा कुरुते किं न सुन्दरां प्राप्य कामिनीम् ॥२९ एकदा विष्टरक्षोभे' जाते सति पुरंदरः । पप्रच्छ धिषणं साधो केनाक्षोभि ममासनम् ॥३० जगाद धिषणो देव ब्रह्मणः कुर्वतस्तपः। अर्धाष्ट्राब्दसहस्राणि वर्तन्ते राज्यकाङ्क्षया ॥३१ प्रभो तपःप्रभावेण तस्यायं महता तव।। अजनिष्टासनक्षोभस्तपसा किं न साध्यते ॥३२ हरे हर तपस्तस्य त्वं प्रेयं स्त्रियमत्तमाम । नोपायो वनितां हित्वा तपसां हरणे क्षमः ॥३३ ग्राहं ग्राहमसौ स्त्रीणां दिव्यानां तिलमात्रकम् । रूपं निवर्तयामास भव्यां रामां तिलोत्तमाम् ॥३४ २९) १. ततः ब्रह्मणे। ३०) १. क सिंहासन चञ्चल जाते सति । २. बृहस्पतिम् । ३१) १. क चत्वारि सहस्राणि । २. भवन्ति । ३३) १. हे पुरन्दर; क हे इन्द्र । २. हरणं कुरु । ३४) १. क गृहीत्वा । २. इन्द्रः। जिस ब्रह्मदेवने तिलोत्तमा अप्सराके नृत्यके देखने मात्रसे ही संयमको छोड़ दिया वह भी सुन्दर रमणीको पाकर क्या न करेगा? वह भी उसके साथ विषयभोगकी इच्छा करेगा ही ॥२९॥ उक्त घटनाका वृत्त इस प्रकार है-एक समय इन्द्रके आसनके कम्पित होनेपर उसने अपने मन्त्री बृहस्पतिसे पूछा कि हे साधो! मेरा यह आसन किसके द्वारा कम्पित किया गया है ॥३०॥ इसके उत्तरमें बृहस्पतिने कहा कि हे देव ! राज्यकी इच्छासे ब्रह्माको तप करते हुए चार हजार वर्ष होते हैं। हे प्रभो ! उसके अतिशय तपके प्रभावसे ही यह आपका आसन कम्पित हुआ है। सो ठीक भी है, क्योंकि, तपके प्रभावसे क्या नहीं सिद्ध किया जाता है ? अर्थात् उसके प्रभावसे कठिनसे भी कठिन कार्य सिद्ध हो जाया करता है ।।३१-३२।। _हे देवेन्द्र ! तुम किसी उत्तम स्त्रीको प्रेरित करके उसके इस तपको नष्ट कर दो, क्योंकि, तपके नष्ट करनेमें स्त्रीको छोड़कर और दूसरा कोई भी उपाय समर्थ नहीं है ।।३३।। तदनुसार इन्द्रने दिव्य स्त्रियोंके तिल-तिल मात्र सौन्दर्यको लेकर तिलोत्तमा नामक सुन्दर स्त्रीकी रचना की ॥३४।। २९) ब सारवृत्तं । ३१) ब अर्धष्टाष्टसहस्राणि; इ राजकाझया। ३३) ब तपस्तत्त्वं प्रेर्यत स्त्रिय'; ब क ड इ तपसो हरणे परः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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