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________________ धर्मपरीक्षा-७ १२१ मानं निराकृत्य समं विनीतैरज्ञायमानं परिपृच्छच सद्भिः। सर्व विधेयं विधिनावधार्य ग्रहीतुकामरुभयत्र सौख्यम् ॥९३ रागतो द्वेषतो मोहतः कामतः कोपतो मानतो लोभतो जाड्यतः। कुर्वते ये विचारं न दुर्मेधसः पातयन्ते निजे मस्तके ते ऽशनिम् ॥४ दुर्भेद्यदाद्विशिरोधिरूढः परं न यः पृच्छति दुर्विदग्धः । द्वीपाधिपस्येव पयः पवित्रं रत्नं करप्राप्तमुपैति नाशम् ॥९५ विहितविनयाः पृष्ट्वा सम्यग्विचार्य विभाव्य ये मनसि सकलं युक्तायुक्तं सदापि वितन्वते । प्रथितयशसो लब्ध्वा सौख्यं मनुष्यनिलिम्पयो - रमितगतयस्ते निर्वाणं श्रयन्ति निरापदः ॥१६ इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायां सप्तमः परिच्छेदः ॥७॥ ९३) १. कार्यम् । २. करणीयम् । ९४) १. ते पुरुषा निजमस्तके वज्रं पातयन्ति ये दुर्मेधसः मूर्खाः विचारं न कुर्वते । २. क वज्रम् । ९६) १. कार्यं कुर्वन्ति । २. देवयोः। इसलिए जो सज्जन दोनों ही लोकोंमें सुखको चाहते हैं उन्हें मानको छोड़कर विनम्रतापूर्वक जिन कामोंका ज्ञान नहीं है उनके विषयमें पहले अनुभवी जनोंसे पूछना चाहिए और तब कहीं उन सब कामोंको नियमपूर्वक करना चाहिए ॥२३॥ ___ जो दुर्बुद्धि जन राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, लोभ और अज्ञानताके कारण विचार नहीं करते हैं वे अपने मस्तकपर वज्रको पटकते हैं ॥१४॥ जो मूर्ख दुर्भेद्य अभिमानरूप पर्वतके शिखरपर चढ़कर दूसरेसे नहीं पूछता है वह चोच (या चोल ) द्वीपके अधिपति उस तोमर राजाके हाथमें प्राप्त हुए पवित्र दूधके समान अपने हाथमें आये हुए निर्मल रत्नको दूर करता है ।।९५॥ जो प्राणी विनयपूर्वक दूसरेसे पूछकर उसके सम्बन्धमें भली भाँति विचार करते हुए मनमें योग्य-अयोग्यका पूर्व में निश्चय करते हैं और तत्पश्चात् निरन्तर समस्त कार्यको किया करते हैं वे अपनी कीर्तिको विस्तृत करके प्रथमतः मनुष्य और देवगतिके सुखको प्राप्त करते हैं और फिर अन्तमें केवलज्ञानसे विभूषित होकर समस्त आपदाओंसे मुक्त होते हुए मोक्षपदको प्राप्त होते हैं ॥१६॥ इस प्रकार आचार्य अमितगति द्वारा विरचित धर्मपरीक्षामें सातवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥७॥ ९३) अ ब सदा for समं; अ विधिना विधिर्यो, ब क ड विधिना विधेयं । ९४) अ हि for न; इ घातयन्ते । ९५) अ दुर्भेद, ब दुर्भेदमर्थाद्रिमदाधिरूढः; अब तस्य for नाशम्; ड Om. this verse | ९६) म निलम्पयो'; अविरचितायां for कृतायां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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