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________________ १०३ धर्मपरीक्षा-६ ववति पुत्रफलानि हरन्ति याः क्लेममशेषमनिन्दितविग्रहाः । इह समस्तहषोकसुखप्रदं किमपि नास्ति विहाय वधूरिमाः ॥८३ भवति मूढमना यवि सेवया मृगदृशां पुरुषः सकलस्तदा। युवतिसंगविषक्तनरोऽत्र भो जगति कश्चन नास्ति विवेचकः ॥८४ वदतु को ऽपि मनःप्रियमात्मनो जगति भिन्नेरचौ न निवार्यते । मम पुनर्मतमेतदसंशयं युवतितो न परं सुखकारणम् ।।८५ इति निगद्य विमढमना द्विजः स्वयमलाबुयुगे विनिवेश्य सः । 'प्रियतमाबटुकास्थिकदम्बकं सुरनदी चलितः परिवेगतः ॥८६ वाचन तस्य पुरे बटुको ऽवमः स मिलितो भयवेपितविग्रहः । इति जगाद निपत्ये पदाब्जयोर्मम सहस्व विभो दुरनुष्ठितम् ॥८७ ८३) १. क स्त्रियः । २. क्लेशम्; क परिश्रमम् । ८५) १. यदि वदति तदा वदतु । २. भिन्नपरिणामे । ३ निःसन्देहम् । ८६) १. क लोके तुंबडीयुग्मे । २. निक्षेप्य । ३. क यज्ञदत्ता। ८७) १. कम्पितशरीर । २. क नत्वा । ३. क क्षमस्व । ४. क दुश्चेष्टितम् । उत्तम शरीरको धारण करनेवाली जो स्त्रियाँ पुत्ररूप फलोंको देती हैं और समस्त कष्टको नष्ट करती हैं उन स्त्रियोंको छोड़कर यहाँ समस्त इन्द्रियोंको सुख देनेवाली कोई भी दूसरी वस्तु नहीं है ।।८।। __ यदि स्त्रियोंके सेवनसे समस्त पुरुष विवेकहीन होते हैं तो फिर संसारमें उन स्त्रियोंके संगमें आसक्त पुरुषोंमें श्रेष्ठ कोई भी मनुष्य विचारशील नहीं हो सकता था ॥८४॥ संसार भिन्न रुचिवाला है, उसमें यदि कोई अपने मनको प्रिय अन्य वस्तु कहे तो उसे मैं नहीं रोकता हूँ। परन्तु मेरा यह निश्चित मत है कि युवतीको छोड़कर दूसरा कोई सुखका कारण नहीं है ॥८५॥ इस प्रकार कहकर उस विचारहीन ब्राह्मणने स्वयं दो तूम्बडियों में अपनी प्रियतमा (यज्ञा) एवं उस बटुककी हड्डियोंके समूहको रखा और शीघ्रतासे गंगा नदीकी ओर चल दिया ॥८॥ इस प्रकारसे जाते हुए उसे किसी नगरमें वह निकृष्ट बटुक मिल गया। वह भयसे काँपते हुए उसके पाँवोंमें गिर गया और बोला कि हे प्रभो! मेरे दुराचरणको क्षमा कीजिए ।।८७॥ ८३) ब फल for सुख । ८४) अ नरोत्तमो जगति । ८६) भ ड 'मलांबु; अ क प्रतिवेगतः । ८७) ब वेपथु for वेपित; इ निपत्य जगाद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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