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________________ अमितगतिविरचिता मोहमपास्य सुहृत्तनुजादौ देहि धनं द्विजसाधुजनेभ्यः। संस्मर कंचन देवमभीष्टं येनं गतिं लभसे सुखधात्रीम् ॥८५ वाचमिमां से निशम्य बभाषे कार्यमिदं कुरु मे हितमेकम् । पुत्र पितुर्न कदाचन पूज्यं वाक्यमपाकुरुते हि सुपुत्रः॥८६ रे मयि जीवति वत्स न वैरी स्कन्द इयाय कदाचन सौख्यम् । बन्धुतनूजविभूतिसमेतो नापि विनाशमयं प्रतिपेदे ॥८७ एष यथा क्षयमेति समूलं किंचन कर्म तथा कुरु वत्स । येने वसामि सुखं सुरलोके हृष्टमनाः कमनीयशरीरः॥८८ क्षेत्रममुष्य विनीय मृतं मां यष्टिनिषण्णतनुं सुत कृत्वा । गोमहिषोहयवृन्दमशेषं सस्यसमूहविनाशि विमुञ्च ॥८९ ८५) १. हे तात । २. स्मरणेन । ३. क गतिम् । ८६) १. ग्रामकूटः । २. हे । ३. उल्लङ्घते । ८७) १. न प्राप्तवान् । २. स्कन्दः । ८८) १. येन कारणेन धर्मेण । ८९) १. स्कन्दस्य । २. आनीय । ३. धान्य । मित्र और पुत्र आदिके विषयमें मोहको छोड़कर ब्राह्मण और साधुजनोंके लिए धनको दीजिए-उन्हें यथायोग्य दान कीजिए। साथ ही ऐसे किसी अभीष्ट देवका स्मरण भी कीजिए जिससे कि आपको सुखप्रद गति प्राप्त हो सके ।।८५।। पुत्रके इस कथनको सुनकर वह (वक्र) बोला कि हे पुत्र ! तुम मेरे लिए हितकारक एक इस कार्यको करो, क्योंकि, योग्य पुत्र कभी पिताके आदरणीय वाक्यका उल्लंघन नहीं करता है ।।८।। हे पुत्र ! मेरे जीवित रहते हुए वैरी स्कन्द कभी सुखको प्राप्त नहीं हुआ। परन्तु जैसा कि मैं चाहता था, यह भाई, पुत्र एवं विभूतिके साथ विनाशको प्राप्त नहीं हो सका ।।८।। हे वत्स ! जिस प्रकारसे यह समूल नष्ट हो जावे वैसा तू कोई कार्य कर। ऐसा हो जानेपर मैं स्वर्गलोकमें सुन्दर शरीरको प्राप्त होकर सन्तोषके साथ सुखपूर्वक रहूँगा ।।८८॥ इसके लिए तू मेरे मुर्दा शरीरको उसके खेतपर ले जाकर लकड़ीके सहारे खड़ा कर देना और तब फसलको नष्ट करनेवाले समस्त गाय, भैंस और घोड़ोंके समूहको छोड़ देना । तत्पश्चात् तू उसके आनेको देखने के लिए मेरे पास वृक्ष और घासमें छुपकर स्थित हो जाना । इस प्रकारसे जब वह क्रोधित होकर मेरा घात करने लगे तब तू समस्त जनोंको ८५ ) अ मोहमपश्य; व सुहृत्तनयादौ; इ धात्री। ८७) इ स्कन्ध। ८८) इ कंचन; इ चिरं for सुखं । ८९) क निष्पन्नतनुं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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