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________________ ३० भक्तामर-स्तोत्र सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मि, प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम् ॥२२॥ अन्वयार्थ-(स्त्रीणां शतानि) सैकड़ों स्त्रियाँ (शतकः) सैकड़ों (पुत्रान ) पुत्रों को ( जनयन्ति ) जन्म देती हैं, लेकिन (त्वदुपमम्) आप जैसे (सुतम्) पुत्र को (अन्या जननी) दूसरी कोई माता (न प्रसूता) पैदा नहीं कर सकी। (भानि ) नक्षत्रों को (सर्वाः दिशः) सब दिशाएँ (दधति) धारण करती हैं, परन्तु (स्फुरदंशुजालं सहनरश्मिम्) चमकती किरणों के समूह वाले सूर्य को (प्राची दिक् एव) पूर्व दिशा ही (जनयति) प्रकट करती है । भावार्थ- संसार में हजारों स्त्रियाँ हजारों ही पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आपके समान महाप्रभावशाली पुत्र-रत्न को दूसरी किसी माता ने जन्म नहीं दिया । अर्थात् आप अपनी माता के एक अद्वितीय, अलौकिक सर्व- श्रेष्ठ पुत्र थे। सभी दिशाएँ अपने-अपने क्षेत्र में असंख्य लाराओं को प्रकट करती हैं, परन्तु हजारों किरणों के समूह से देदीप्यमान प्रचण्ड सूर्य को तो पूर्व दिशा ही प्रकट करती है। तारे किसी भी दिशा में उदय हों, परन्तु सूर्य तो पूर्व दिशा में ही उदय होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001421
Book TitleBhaktamara stotra
Original Sutra AuthorMantungsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1987
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, M000, & M010
File Size3 MB
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