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________________ ४०७ गा०५८] उत्तरपयडिद्विदिवड्डिसंकमे समुक्त्तिणा मेत्तउवसमसम्मत्तग्गहणषाओग्गट्ठिदिसंतकम्मिएण उवसमसम्मत्ते समुप्पाइदे तन्विदियसमए संखेजगुणवड्डी होइ । एत्तो समयुत्तर-दुसमयुत्तरादिहिदिवियप्पेहिं मि उवसमसम्मत्तं पडिवजमाणाणं संखेजगुणवड्डी चेव होऊण गच्छइ जाव सागरोवमपुत्तमेत्तद्विदिसंतकम्म पत्तमिदि। संपहि वेदगसम्मत्तग्गहणपाओग्गसव्वजहण्णसम्मत्तद्विदि धुवं काऊण मिच्छत्तधुवट्ठिदिप्पहुडि समयुत्तरादिकमेण वड्डाविय संखेजगुणवड्डिविसयो परूवेयव्वो जाव अंतोमुहुत्तूणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तमिच्छत्तद्विदीए सह सम्मत्तं पडिबण्णस्स सव्वुक्कस्सो संखेनगुणवड्ढिवियप्पो जादो ति । एवं चेव पुव्वणिरुद्ध सम्मत्तहिदीदो समयुत्तरादिसम्मत्तद्विदीणं च पादेकं णिरुंभणं काऊण संखेजगुणवड्डिवियप्पा परूवेयव्वा जाव सम्मत्तढिदिसंतकम्मं मिच्छत्तधुवहिदीए अद्धमत्तं जादं ति । एत्तो उवरि णिरुद्धसम्मत्तहिदीदो दुगुणमिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मियमादि कादूण सम्मत्तं पडिवजाविय णेदव्वं जाव सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणमंतोमुहुत्तूणाणमद्धमेत्तसम्मत्तहिदिसंतकम्म पत्तं ति । ६८७५. संपहि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमसंखेजगुणवड्डिरिसओ परूविजदे । तं जहा-सव्वजहण्णचरिमुव्वेलणकंडयचरिमफालिमेत्ततदुभयसंतकम्मियमिच्छाइद्रिणा उवसमसम्मत्ते गहिदे पढममसंखेजगुणवडिट्ठाणमुप्पज्जइ । एवमुवरिमहिदिवियप्पेहि मि सम्मत्तं पडिवज्जाविय णिरुद्धवड्डिविसयो परूवेयव्वो जाव चरिमवियप्पो ति । तत्थ चरिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा-उवसमसम्मत्तपाओग्गसव्वजहण्णमिच्छत्तद्विदिं जहण्णकरनेपर उसके दूसरे समयमें संख्यातगुणवृद्धि होती है । इससे आगे एक समय अधिक और दो समय अधिक आदि स्थितिविकल्पोंके साथ भी उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवों के सागरपृथक्त्वप्रमाण स्थितिसत्कर्मके प्राप्त होने तक संख्यातगुणवृद्धि ही होती रहती है। अब वेदकसम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य सबसे जघन्य सम्यक्त्वकी स्थितिको ध्रुव करके मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिसे लेकर एक समय अधिक आदिके क्रमसे उसे बढ़ाते हुए अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण मिथ्यात्वकी स्थितिके साथ सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके संख्यातगणवृद्धिका सर्वोत्कृष्ट विकल्प प्राप्त होनेतक संख्यातगुणवृद्धिका विषय कहना चाहिए । तथा इसीप्रकार पूर्वमें विवक्षित सम्यक्त्वकी स्थितिसे एक समय अधिक आदि सम्यक्त्वकी स्थितियोंको पृथक्-पृथक विवक्षित कर, सम्यक्त्वके स्थितिसत्कर्मके मिथ्यात्वकी ध्रुवस्थितिके अर्धभागप्रमाण होनेतक, संख्यातगुणवृद्धिके विकल्प कहने चाहिए। इससे आगे सम्यक्त्वकी विवक्षित स्थितिसे दुने मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मसे लेकर सम्यक्त्वको प्राप्त कराकर सत्तर कोड़ाकोड़ीके अन्तर्मुहूर्तकम अर्धभागप्रमाण सम्यक्त्वके स्थितिसत्कर्मके प्राप्त होने तक संख्यातगुणवृद्धिके विकल्प जानने चाहिए। ६.८७५. अब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणवृद्धि के विषयको कहते हैं। यथा-उक्त दोनों कोंके सबसे जघन्य अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिप्रमाण सत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवके उपशमसम्यक्त्बको ग्रहण करनेपर प्रथम असंख्यातगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । इसी प्रकार उपरिम स्थिति विकल्पोंके साथ भी सम्यक्त्वको प्राप्त कराकर विवक्षित वृद्धिके अन्तिम विकल्पके प्राप्त होने तक उसके विषयका कथन करना चाहिए। प्रकृतमें अन्तिम विकल्पको कहते हैं। यथा-उपशमसम्यक्त्वके योग्य सबसे जघन्य मिथ्यात्वकी स्थितिको For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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