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________________ २०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ ४०८. एण्हिमादेसपरूवणद्वमुच्चारणं वत्तइस्सामो। तं जहा-आदेसेण णिरयगइए णेरएसु २७, २६.२३ संका० अंतरं केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । एवं २५, २१ । णवरि जह० अंतोमुहुत्तं । एवं सव्वणेरइय० । णवरि सगट्टिदी देसूणा। ४०९. तिरिक्खेसु २७, २६, २३ संकामयंतरमोघं । एवं २१ । णवरि जह० अंतोमु० । २५ जह० अंतो०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । एवं पंचिंदि०तिरिक्खतिय० ३। णवरि सगद्विदी। पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज०-अणुदिसादि जाव सव्वढे त्ति तिण्हं द्वाणाणं णत्थि अंतरं । ६४०८. अब आदेशका कथन करनेके लिये उच्चारणाको बतलाते हैं। यथा-आदेशसे नरकगतिमें नारकियोंमें २७, २६ और २३ प्रकृतिक स्थानोंके संक्रामकका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार २५ और २१ प्रकृतियोंके संक्रामकोंका अन्तरकाल जानना चाहिये। किन्तु इन स्थानोंके संक्रामकोंका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिये। विशेषार्थ- यहाँ सर्वत्र २७ प्रकृतिक आदि संक्रमस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय ओघके समान घटित कर लेना चाहिये। किन्तु २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य अन्तरमें ओघसे कुछ विशेषता है। बात यह है कि नरकगतिमें उपशमश्रेणिका प्राप्त होना सम्भव नहीं है इसलिये यहाँ २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य अन्तर एक समय नहीं प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है जो अन्तर्मुहूतके भीतर दो बार अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजनापूर्वक मिश्र गुणस्थान प्राप्त करानेसे घटित होता है। शेष कथन सुगम है। ४०६. तिर्यञ्चोंमें २७, २६ और २३ प्रकृतियोंके संक्रामकका अन्तरकाल ओघके समान है। इसी प्रकार २१ प्रकृतियोंके संक्रामकका अन्तरकाल जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इस स्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा २५ प्रकृतियोंके संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिये । किन्तु अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें तीन स्थानोंका अन्तर नहीं है। विशेषार्थ—तिर्यञ्चोंमें २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य अन्तर नरकगतिके समान प्राप्त होता है, इसलिये इसका ओघके समान निर्देश न करके अलगसे विधान किया है, क्योंकि तिर्यश्चगतिमें भी उपशमश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव न होनेसे यहाँ २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य अन्तर एक समय घटित नहीं हो सकता है। जो २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाला तिर्यश्च जीव २५ प्रकृतियोंका संक्रमण कर रहा है उसने उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके २८ प्रकृतियोंकी सत्ता प्राप्त की। फिर वह सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वलना होनेके पूर्व ही तीन पल्यकी आयुवाले तिर्यश्चोंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ यथासम्भव अतिशीघ्र सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रमके अन्तिम समयमें उपशम सम्यक्त्वपूर्वक वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर पल्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण काल रहने पर वह मिथ्यात्वमें गया और अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर वह १. श्रा०प्रतौ णाणाणं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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