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________________ १६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ मिस्सणाणस्स सण्णाणंतब्भावो ? ण, असुद्धणयाहिप्पारण तस्स तदंतब्भावविरोहाभावादो। कधमोहिणाणम्मि पढमसम्मत्तग्गहण पढमसमयलद्धप्पसरूवस्स छव्वीससंकमट्ठाणस्स संभवो ? ण एस दोसो, देव-णेरइएसु तग्गहणपढमसमए चेव तण्णाणस्स सरूवोवलंभसंभवादो । 'एक्कम्मि एकवीसा य' एकम्मि मणपज्जवणाणे एकवीससंखावच्छिण्णाणि संकमट्ठाणाणि होति, तत्थ पणुवीस-छव्वीसाणमसंभवादो। 'अण्णाणम्मिय तिविहे पंचेव य संकमट्ठाणा।' कुदो ? तत्थ सत्तावीसादीणमिगिवीसपजंतसंकमट्ठाणाणं वावीसबहिब्भावेण पंचसंखावहारियाणं समुवलंभादो। एत्थ चक्खु-अचक्खु-ओहिदसणीसु पुध परूवणा ण कया, तेसिमोघपरूवणादो भेदाभावादो मदि-सुदोहिणाणपरूवणाहि चेव गयत्थत्तादों वा । तदो तत्थ पादेक्कं तेवीससंकमट्ठाणसंभवो अणुगंतव्यो ॥२१॥ ३११. एवं णाणमग्गणं संगतोभाविददंसणाणुवादं परिसमाणिय संपहि भवियाहारमग्गणासु संकमट्ठाणगवेसणहमुत्तरं गाहासुत्तमोइण्णं--'आहारय-भविएसु य०' आहारमग्गणाए भवियमग्गणाए च तेवीस संकमट्ठाणाणि भवंति, सव्वेसि तत्थ संभवे शंका-मिश्रज्ञानका सम्यग्ज्ञानमें अन्तर्भाव कैसे हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि अशुद्ध नय के अभिप्रायसे मिश्रज्ञानका सम्यग्ज्ञानमें अन्तर्भाव करनेमें कोई विरोध नहीं आता है। शंका-प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें प्राप्त होनेवाला छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान अवधिज्ञानमें कैसे सम्भव है ? समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि देव और नारकियोंमें प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें ही अवधिज्ञानकी स्वरूप प्राप्ति सम्भव है और इसीसे अवधिज्ञानमें छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान बन जाता है। _ 'एकम्मि एकवीसा य' एक मनःपर्ययज्ञानमें इक्कीस संक्रमस्थान होते हैं, क्योंकि इसमें पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान सम्भव नहीं है। तथा 'अण्णाणम्मि य तिविहे पंचेव य संकमट्ठाणा' तीन प्रकारके अज्ञानोंमें पांच ही संक्रमस्थान होते हैं, क्योंकि वहाँ बाईसके बिना सत्ताईससे लेकर इक्कीस तक पांच ही संक्रमस्थान पाये जाते हैं। यहांपर चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शनमें अलगसे प्ररूपणा नहीं की है, क्योंकि इनके कथनमें ओघ कथनसे कोई भेद नहीं पाया जाता । अथवा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानकी प्ररूपणा द्वारा ही इनमें कितने संक्रमस्थान होते हैं इसका ज्ञान हो जाता है, अतएव इन तीन दर्शनोंमेंसे प्रत्येकमें तेईस संक्रमस्थान सम्भव हैं यह जान लेना चाहिये । ६३११. इसप्रकार ज्ञानमार्गणा और उसमें गर्भित दर्शनमार्गणाके कथनको समाप्त करके अब भव्य और आहार मार्गणाओंमें संक्रमस्थानोंका विचार करनेके लिये आगेका गाथासूत्र कहते हैं-'आहारय-भविएसु य०' आहारमार्गणा और भव्यमार्गणामें तेईस संक्रमस्थान होते हैं, १. ता०-श्रा प्रत्योः णोसुद्ध- इति पाठः। २. श्रा०प्रतौ -संखा वड्डिहाणि संकमबाणाणि इति पाठः । ३. ता प्रतौ गयत्थादो इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001414
Book TitleKasaypahudam Part 08
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages442
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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