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________________ ८७ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ताधे सम्मामिच्छत्तउकस्सपदेसविहत्ती, सगअसंखे०भागेणूणमिच्छत्तुक्कस्सदव्वस्स सम्मामिच्छत्तसरूवेण परिणयस्सुवलंभादो। सम्मत्तसरूवेण संकेतदव्वमोकहिदूण गुणसेढीए गालिददव्वं च मिच्छत्तुक्कस्सदव्वस्स असंखे०भागो त्ति कत्तो णव्वदे ? उवरि भण्णमाणपदेसप्पाबहुगसुत्तादो। एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है, क्योंकि उस समय अपना असंख्यातवाँ भाग कम मिथ्यात्वका उत्कृष्ट द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे परिणमित हुआ पाया जाता है। अर्थात् चूंकि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यका असंख्यातवाँ भाग तो सम्यक्त्वरूप हो जाता है और गुणश्रेणीके द्वारा निर्जीर्ण हो जाता है, शेष बहुभाग द्रव्य सम्मग्मिथ्यात्व रूप हो जाता है अतः उस समय सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होनेसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। का-मिथ्यात्वका जो द्रव्य सम्यक्त्व रूपसे संक्रान्त होता है तथा जो द्रव्य अपकृष्ट होकर गणरणिके द्वारा गल जाता है वह सब द्रव्य मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है। समाधान-आगे कहे जानेवाले प्रदेशविषयक अल्पबहुत्वको बतलानेवाले सूत्रसे जाना जाता है। यह उक्त सूत्रका भावार्थ है। विशेषार्थ—सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय गुणितकर्माशवाले दर्शनमोहके क्षपकके बतलाया है। अतः गुणितकांशवाले मिथ्यादृष्टिके उपशम सम्यक्त्व उत्पन्न कराकर क्षापोपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न कराया है और फिर दर्शनमोहका क्षपण कराया है। दर्शनमोहके क्षपणके लिये भी पूर्वोक्त तीन करण होते हैं और वहाँ भी अपर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें गुणश्रेणि आदि कार्य होते हैं। उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके समय और यहाँ पर भी यह गुणश्रेणि जघन्य परिणामोंसे ही कराना चाहिये, क्योंकि यदि पहले उत्कृष्ट आदि परिणामोंसे गुणश्रेणि कराई जायेगी तो मिथ्यात्वका संचित बहुत द्रव्य गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा निर्जीर्ण हो जायेगा और ऐसी स्थितिमें सम्यग्मिथ्यात्वमें अधिक द्रव्यका संक्रमण न हो सकनेसे उसका उत्कृष्ट संचय नहीं बन सकेगा, तथा यहाँ पर भी उत्कृष्ट परिणामोंसे गुणश्रेणि कराने पर तीनों प्रकृतियोंका बहुत द्रव्य निर्जीर्ण हो जायेगा। उपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति कराते हुए यह कहा था कि मिथ्यात्वके अपकृष्ट द्रव्यका निक्षेप उदयावलीसे अतिस्थापनावलीके पूर्व तक होता है। किन्तु यहाँ पर सम्यक्त्व प्रकृतिके अपकृष्ट द्रव्यका निक्षेप तो उदयावलीसे ही होता है किन्तु मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वक अपकृष्ट द्रव्यका निक्षेप उदयावलीमें न होकर उससे बाहर गुणश्रेणि और द्वितीय स्थितिमें ही होता है । इसका कारण यह है कि जिस प्रकृतिका उदय होता है उसके अपकृष्ट द्रव्यका निक्षेप उदयालिसे किया जाता है और जिस प्रकृतिका उदय नहीं होता है उसके अपकष्ट द्रव्यका निक्षेप उदयावलीमें न होकर उससे बाहर ही होता है। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टिके केवल सम्यक्त्वप्रकृतिका ही उदय होता है सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्वका उदय नहीं होता, अतः उनके अपकृष्ट द्रव्यके निक्षेपणमें अन्तर है। इस प्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें गुणश्रेणि रचनाको करके अनिवृत्तिकरणके कालमेंसे संख्यात बहुभागप्रमाण कालके बीत जाने पर दूरापकष्टि नामकी स्थिति उत्पन्न होती है। स्थितिकाण्डकघातके द्वारा जिस स्थितिसत्कर्मका घात करते करते पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहता है उस सबसे अन्तिम पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिसत्कर्मको दूरापकृष्टि कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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