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________________ ५६ पदेस जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ कोहसंजल०दव्वं होदि। कोहसंज०दव्वे माणसंजलणम्मि पक्खित्ते माणसंज०दव्वं होदि । माणसंज०दव्वे मायासंज० पक्खित्ते मायासंज०दव्वं होदि। मायासंजदव्वे लोभसंजलणम्मि पक्खित्ते लोहसंजलणदव्वं होदि त्ति एदेण कारणेण णत्थि तत्थ भागाभागो, जुगवमसंभवंताणं भागाभागविहाणोवायाभावादो। अधवा जुगवमसंभवंताणं पि सव्वदव्वाणं बुद्धीए समाहारं कादूण एसो भागाभागो कायव्वो। पर मान संज्वलनका द्रव्य होता है। मान संज्वलनके द्रव्यको माया संज्वलनके द्रव्यमें मिला देनेपर माया संज्वलनका द्रव्य होता है। और माया संज्वलनके द्रव्यको लोभसंज्वलनके द्रव्यमें . मिला देनेपर लोभसंज्वलनका द्रव्य होता है। इस कारणसे क्षपकनेणीमें भागाभाग नहीं है, क्योंकि इनका एकसाथ पाया जाना सम्भव न होनेसे वहाँ भागाभागके विधान करनेका कोई उपाय नहीं है। __अथवा प्रकृतियोंके एक साथ असंभवित भी सब द्रव्यका बुद्धिके द्वारा समूह करके यह भागाभाग करना चाहिये। विशेषार्थ-देशघाती द्रव्यका जो भाग संज्वलन कषायको मिला है उसका बटवारा उक्त दोनों क्रमानुसार चार भागोंमें होता है। जैसे कषायके भागका परिमाण ३४५६० है। उसमें आवलिके असंख्यातवें भागके कल्पित प्रमाण ४ से भाग देनेसे लब्ध ८६४० आता है। इस एक भागको जुदा रख शेष बहुभाग ३४५६०-८६४० = २५९२० के चार समान भाग करो। फिर जुदे रखे एक भाग ८६४० में ४ का भाग देकर लब्ध एक भाग २१६० को अलग रखकर शेष बहुभाग ८६४०-२१६०%६४८० को प्रथम समान भाग ६४८० में जोड़ देनेसे ६४८०+ ६४८०=१२९६० संज्वलन लोभका भाग होता है। फिर जुदे रखे एक भाग २१६० में फिर ४ का भाग देनेसे लब्ध एक भाग ५४० को जुदा रखकर शेष बहुभाग २१६०-५४०=१६२० को दसरे समान भाग ६४८० में जोड़नेसे संज्वलन मायाका भाग ६४८०+१६२०%3D८१०० होता है। जुदे रखे भाग ५४० में फिर ४ का भाग देकर लब्ध एक भाग १३५ को जुदा रखकर शेष बहुभाग ५४०-१३५-४०५ को तीसरे समान भागमें जोड़नेसे संज्वलन क्रोधका भाग ६४८०+ ४०५= ६८८५ होता है। शेष बचे एक भाग १३५ को चौथे समान भागमें मिलानेसे संज्वलन मानका भाग ६४८०+ १३५६६१५ होता है। दूसरे क्रमके अनुसार कषायके सर्व द्रव्य ३४५६० के चार समान भाग करके पहले, दूसरे और तीसरे समान भागमें क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागसे, कुछ अधिक आवलिके असंख्यातवें भागसे और उससे भी कुछ अधिक आवलिके असंख्योतवें भागसे भाग देकर लब्ध तीनों एक एक भागोंको जोड़कर चौथे समान भागमें मिलानेसे संज्वलन लोभका भाग होता है और पहले, दूसरे और तीसरे समान भागमेंसे अपने अपने लब्ध एक एक भागको घटानेसे जो द्रव्य शेष बचता है वह क्रमसे संज्वलन मान, संज्वलन क्रोध और संज्वलन मायाका द्रव्य होता है। जैसा कि प्रारम्भमें ही कह आये हैं। गुणितकर्माश जीवके प्रदेश सत्कर्मको लेकर ही यह विभाग किया गया है। क्षपकश्रेणीमें यद्यपि संज्वलनचतुष्कका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है किन्तु वह एक साथ चारों कषायोंका नहीं होता, किन्तु जब पुरुषवेद और नोकषायोंके प्रदेशोंका प्रक्षेप संज्वलन क्रोधमें हो जाता है तब संज्वलनक्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। जब यही क्रोध मानमें प्रक्षिप्त हो जाता है तब मानका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए। अतः क्षपक श्रणिमें भागाभाग नहीं होता । फिर भी यदि वहाँ भागाभाग करना ही हो तो उनके सब द्रव्यका समाहार करके कर लेना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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