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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भागाभागो 2 और शेष एक भाग सहित दूसरा भाग नोकषायका होता है। जैसे यदि मोहनीय कर्मके संचित मव्यका प्रमाण ६५५३६ कल्पित किया जावे और अनन्तका प्रमाण १६ कल्पित किया जावे तो ६५५३६ में १६ का भाग देनेसे लब्ध एक भाग ४०९६ आता है। यह सर्वघाती द्रव्य शेष ६५५३६-४०९६%६१४४० देशघाती द्रव्य है। देशघाती द्रव्यका बटवारा देशघाती प्रकृतियोंमें ही होता है। अतः इस देशघाती द्रव्य ६१४४० में आवलिके असंख्यातवें भागके कल्पित प्रमाण ४ से भाग देने पर लब्ध एक भाग १५३६० आता है। इस एक भागको जुदा रखनेसे शेष बहुभाग ६१४४०-१५३६० = ४६०८० रहता है। इस बहुभागके दो समान भाग करनेसे प्रत्येक भागका प्रमाण २३०४० होता है। इसमें जुदा रखे हुए एक भाग १५३६० के बहुभाग ११५२० मिला देनेसे २३०४०+११५२०=३४५६. संज्वलन कषायका द्रव्य होता है और बचे हुए एक भाग ३८४० सहित दूसरा समान भाग २३०४० अर्थात् २३०४० + ३८४०% २६८८० नोकषायका द्रव्य होता है। नोकषाय नौ हैं, किन्तु उनमेंसे एक समयमें पाँचका हो बन्ध होता है-तीनों वेदोंमेंसे एक वेद, रति-अरतिमेंसे एक, हास्य शोकमेंसे एक और भय तथा मुगुप्सा । अतः तीनों वेदों, रति-अरति और हास्थ-शोकमें अभेद विवक्षा करके द्रव्यका बटवारा भी उसी रूपसे बतलाया है। इसलिये नोकषायको जो द्रव्य मिलता है वह पाँच जगह विभाजित हो जाता है। उसके विभागका क्रम इस प्रकार है-नोकषायके द्रव्यमें आबलिके असंख्यातवें भागका भाग देकर लब्ध एक भागको जुदा रखो और शेष बहुभागके पाँच समान भाग करो। फिर जुदे रखे हुए एक भागमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग दो । लब्ध एक भागको जुदा रखकर शेष बहुभागको पाँच समान भागोंमेंसे पहले भागमें जोड़ देनेसे जो द्रव्य होता है वह द्रव्य वेदका होता है। फिर जुदे रखे हुए एक भागमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर लब्ध एक भागको जुदा रख शेष बहुभागको पाँच समान भागोंमेंसे दूसरे भागमें जोड़ देनेसे रति-अरतिका द्रव्य होता है। इसी प्रकार जुदे रखे एक भागमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर और एक भागको फिर जुदा रख शेष बहुभागको तीसरे भागमें जोड़नेसे हास्य-शोकका भाग होता है। फिर जुदे रखे एक भागमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर बहभाग चौथेमें मिलानेपर भयका भाग होता है। फिर शेष बचे एक भाग गको पाँचवें समान भागमें जोड़ देनेसे जगप्साका भाग होता है। जैसे नोकषायका द्रव्य २६८८० है। उसमें आवलिके असंख्यातवें भागके कल्पित प्रमाण ४ का भाग देनेसे लब्ध एक भाग ६७२० आता है । उसे अलग रखनेसे शेष २६८८०-६७२० =२०१६० बचता है। उसके पाँच समान भाग करनेसे प्रत्येक भागका प्रमाण ४०३२ होता है । जुदे रखे हुए एक भाग ६७२० में ४ का भाग देनेसे लब्ध एक भाग १६८० आता है । इसे अलग रखकर शेष बहुभाग ६७२०१६८०%=५०४० को पहले समान भाग ४०३२ में जोड़नेसे वेदका द्रव्य ९०७२ होता है। फिर जुदे रखे एक भाग १६८० में ४ का भाग देनेसे लब्ध एक भाग ४६० आता है। इसे जुदा रखकर शेष बहुभाग १६८०-४२०=१२६० को दूसरे समान भागमें जोड़नेसे ४०३२+१२६०-५२९२ रति-अरतिका द्रव्य होता है । इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये । यहाँ एक बात समझ लेना आवश्यक है कि मूलमें एक भागमे आवालके असंख्यातवभागका भाग न देकर यह लिखा। कि आवलिके असंख्यातवें भागका विरलन करो और प्रत्येक विरलित रूपपर जुदे रखे हुए एक भागके समान भाग करके दे दो। किन्तु ऐसा करने का मतलब ही जुदे रखे हुए भागमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देना होता है। जैसे १६ में ४ का भाग देनेसे चार आता है यह एक भाग है, वैसे ही चारका विरलन करके और प्रत्येक विरलित रूपपर १६ को ४ समान भागोंमें करके रखने पर एक भागका प्रमाण ४ ही आता है। यथा-४४ प्रमाण ४ा जाता है। चया११११। अतः ४४४४। अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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