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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ जह० एगस०, उक्क० संखेजा समया । अधवा मणुसतिए अवढि० उक्क० अंतोमु० । एवं सव्वट्ठ। णवरि अवढि० अंतोमुहुत्तं णत्थि । मणुसअपज० असंखे०भागवड्वि-हा० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवट्टि. जह० एगस०, उक० आवलि. असंखे०भागो। एवं जाव अणाहारि त्ति । ६८. अंतराणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० असंखे०भागवड्डि-हाणि-अवढि० णत्थि अंतरं । एवं तिरिक्खा० । आदेसेण णेरइय० मोह० असंखे०भागवड्डि-हा० णत्थि अंतरं । अवढि० ज० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिं०तिरिक्ख-मणुसतिय-सव्वदेवा त्ति । णवरि मणसतिए अवट्टि उक्क० वासपुधत्तं । मणुसअपज्ज० असंख०भागवड्डि-हा० जह० एगस०, उक० पलिदो० असंखे०भागो। अवडि० जह० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा। एवं जाव अणाहारि त्ति । सर्वदा है। अवस्थितविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अथवा तीन प्रकारके मनुष्योंमें अवस्थितविभक्तिवालोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिये । इतना विशेष है कि सर्वार्थसिद्धिमें अवस्थितविभक्तिवालोंका अन्तर्मुहूर्त काल नहीं है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयको असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। विशेषार्थ-भुजगारविभक्तिमें ओघ और आदेशसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थित का नाना जीवोंकी अपेक्षा जो काल घटित करके बतलो आये हैं वही यहाँ क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका काल ओघ और आदेशसे घटित कर लेना चाहिये। उससे इसमें कोई अन्तर नहीं है, अतः यहाँ पुनः नहीं लिखा। केवल यहाँ सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंके अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल विकल्पसे जो अन्तर्मुहूर्त बतलाया है सो यह सर्वोपशमनाकी अपेक्षा बतलाया है और भुजगारविभक्तिमें इसके कथनकी विवक्षा नहीं की गई है वैसे यह काल वहाँ भी बन जाता है। ६८. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवालोंका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिये। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवालोंका अन्तर नहीं है। अवस्थितविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, तीन प्रकारके मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिये । इतना विशेष है कि तीन प्रकारके मनुष्योंमें अवस्थितविभक्तिवालोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवालोंका जघन्य अन्तर ऐक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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