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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ भागवडि- हाणि ० [० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । अवट्टि० जह० एगस०, उक्क० सत्तट्ठसमया । अधवा अंतोमुहुत्तं सव्वोवसामणाए । एवं मणुसतिए । एवं चैव सव्वणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय० देवगदी० देवा जाव सव्वढसिद्धित्ति । णवरि अवहि • अंतोमु० णत्थि, तत्थ सव्वोवसमाभावादो । पंचिं० तिरि०अपज० असंखे० भागवड्डि-हाणि० जह० हगस०, उक्क० अंतोमु० । अवट्ठि० जह० एगस०, उक्क० सत्तट्ठस० । एवं मणुसअपज्ज० । एवं जाव अणाहारि चि । ० ४२ असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात-आठ समय है । अथवा सर्वोपशमना की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त है । तीन प्रकारके मनुष्यों में भी इसी प्रकार जानना चाहिए । सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, तीन प्रकारके पचेन्द्रिय तिर्यञ्च, देवगति में सामान्य देव और सर्वार्थसिद्धितकके प्रत्येक देवों में इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि इन नारकी आदिमें अवस्थितविभक्तिका अन्तर्मुहूर्त काल नहीं होता, क्योंकि उनमें मोहनीयकी सर्वोपशमना नहीं होती । पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तोंमें असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात्तभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये । विशेषार्थ — पहले वृद्धि और हानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण घटित करके बतला आये है, असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिका भी उतना ही काल प्राप्त होता है, अतः इनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । भुजगारविभक्ति में अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये । विशेष बात इतनी है कि वहाँ संख्यात समयका प्रमाण नहीं खोला है किन्तु यहाँ उसका खुलासा कर दिया है। मालूम होता है एक परिणाम योगस्थानका उत्कृष्ट काल सात आठ समय है इसीलिये यहाँ अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल सात आठ समय कहा है । अथवा उपशमश्र णिमें मोहनीयका सर्वोपशम करके जीव जब उपशान्तमोह गुणस्थानमें जाता है तो वहाँ अन्तर्मुहूर्तकाल तक एक भी परमाणु निर्जीर्ण नहीं होता और वहाँ न नये कर्मका बन्ध ही होता है । इस तरह वहाँ वृद्धि और हानि न होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक अवस्थान ही रहता है । यही कारण है कि सर्वोपशामनाकी अपेक्षा अवस्थितप्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी इनके उक्त व्यवस्था अविकल बन जाती है, इसलिये उनमें सब कथन ओघके समान कहा। आगे सब नारकी आदि कुछ और मार्गणाएँ भी गिनाई हैं जिनमें अवस्थित - विभक्तिके अन्तर्मुहूर्त कालको छोड़कर शेष सब व्यवस्था बन जाती है, इसलिये वहाँ भी इसके कथनको छोड़कर शेष सब कथन ओघके समान कहा । परन्तु इन मार्गणाओंमें उपशमश्रेणिपर आरोहण नहीं होता, अतः सर्वोपशमना न बनने से अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त नहीं प्राप्त होता, अतः इसका निषेध किया । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्त के और मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त के असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल जो अन्तर्मुहूर्त बतलाया सो इसका कारण यह है कि इस मार्गणावाले एक जीवका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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