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________________ २९० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ हेडिमं वड्डाविय उवरिमेण संधाणं जुजंतयं, संतकम्मोदारणे तहाविहपइजाभावादो । तेणेदं मोत्तूण चरिमसमयअसंजदसम्मादिविसंतं घेत्तण संतकम्मट्ठाणाणं परूवर्ण कस्सामो। तं जहा-चरिमसमयअसंजदसम्मादिहिसंतम्मि एगगोवच्छा सादिरेगा वड्ढाव दव्वा । एवं वड्डिदण हिदेण अण्णगो दुचरिमसमयअसंजदसम्मादिट्ठी सरिसो। एवमोदारेदव्वं जाव व छावडीओ तिण्णि पलिदोवमाणि च ओदरिय छपजत्तीहि पज्जत्तयदपढमसमओ त्ति । ६३०४. संपहि एत्तो हेट्ठा ओदारदुं ण सक्कदे, थिवक्कस्स गोवुच्छं पेक्खिदूण णवकबंधस्स असंखेजगुणत्तवलंभादो। तेणेदं परमाणुत्तरकमेण' चत्तारि परिसे अस्सिदूण पंचहि वड्डीहि वड्डावेदव्वं जाव गुणिदकम्मेण ईसाणदेव सु णव॒सयवदमावूरिय पुणो तिरिक्खेसु उप्पन्जिय तत्थ अंतोमुहुत्तं जीविदण दाणेण दाणाणुमोदेण वा कुरवाउअं बंधिदूण छप्पजत्तीओ समाणेदूण द्विदपढमसमओ त्ति । संपहि इमेण सरिसमीसाणदेवचरिमसमयदव्व घेत्तूण परमाणुत्तरकम ण दोहि वड्डीहि वड्ढावदव्व जावप्पणो ओघुक्कस्सदवं पत्तं ति । संपहि गुणिदस्स वि एदेणेव कमण संतमस्सिदूण हाणपरूवणा कायव्वा । णवरि ऊणं कादूण संधाणं कायव्वं । असंख्यातगुणा देखा जाता है। यदि कहा जाय कि नीचेके द्रव्यको बढ़ाकर ऊपरके द्रव्यके साथ सन्धिस्थल में जोड़ देंगे, सो भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि सत्कर्मको उतारनेके सम्बन्धमें इस प्रकारकी प्रतिज्ञा नहीं की है, इसलिए इस द्रव्यको यहीं छोड़कर असंयतसम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयवर्ती सत्त्वकी अपेक्षा सत्कर्मस्थानोंका कथन करते हैं जो इस प्रकार है-सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयवर्ती सत्त्वमें साधिक एक गोपुच्छाको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो उपान्त्य समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि है। इस प्रकार दो छयासठ सागर और तीन पल्य उतर कर छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होनेके प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये । $३०४. अब इससे नीचे उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि स्तिवुककी गोपुच्छाकी अपेक्षा नवक बन्ध असंख्यातगुणा पाया जाता है, इसलिये इसके द्रव्यको चार पुरुषोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा तब तक बढ़ाना चाहिये जब जाकर एक गुणितकर्माश जीव नपुंसकवेदको पूराकर फिर तिर्यचोंमें उत्पन्न होकर और वहां अन्तर्मुहूर्त काल तक जाकर दान या दानकी अनुमोदनासे कुरुक्षेत्रकी आयुको बाँधकर और वहाँ उत्पन्न होनेके बाद छह पर्याप्तियोंको पूरा कर तदनन्तर पहले समयमें स्थित होवे । अब इसके समान ईशान स्वर्गके देवके अन्तिम समयके द्रव्यको लेकर उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे दो वृद्धियोंके द्वारा अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये। अब गुणितके भी इसी क्रमसे सत्त्वकी अपेक्षा स्थानोंका कथन करना चाहिये। किन्तु इती विशेषता है कि कम करके सन्धान कर लेना चाहिये। १. आ०प्रतौ 'वेणेदवं परमाणुत्तरकमेण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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