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________________ २३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ६ २२९. संपहि तस्सेव सम्मामिच्छत्तस्स गुणिदकम्मंसियमस्सिदूण कालपरिहाणीए हाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा-खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवजिय वेछावडीओ भमिय मिच्छत्तं गंतूण दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेगं दुसमयकालट्ठिदियं धरिदे जहण्णदव्वं होदि । संपहि इमं दव्वं चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण पंचहि वडीहि वहावेदव्वं जाव तप्पाओग्गुक्कस्सदव्वं जादं ति । सत्तमपुढविणेरइयचरिमसमए मिच्छत्सदव्वमुकस्सं करिय सम्मत्तं पडिवञ्जिय वेछावहीओ भमिय दीहुव्वेल्लणकालेण सम्मामिच्छत्तमुवेल्लिय एगणिसेगं दुसमयकालहिदियं जाव पावदि ताव वड्डिदं ति वुत्तं होदि । एवं वड्डिदूण द्विदेण अवरेगो सत्तमपुढवीए उक्कस्सदव्वं करेमाणो ओघुक्कस्सदव्वस्स किंचूणद्धमेतदव्वसंचयं करिय आगंतूण सम्मत्तं पडिवजिय वेछावडीओ भमिय दीहुव्वल्लणकालेणुव्व लिय दोणिसेगे तिसमयकालद्विदिगे धरेदूण द्विदो सरिसो। २३० संपहि इमेण अप्पणो ऊणीकददव्वमेत्तं वड्डिदेण अण्णेगो गुणिदघोलमाणो उक्कस्सदव्वस्स किंचूणदोतिभागमेतदव्वं संचयं करिय आगंतूण तिण्णिगोवुच्छाओ धरिय द्विदो सरिसो। संपहि इमेण अप्पणो ऊणीकददव्वमेत्तं तीहि वडोहि वड्डिदेण किंचूणतिण्णिचदुब्भागमेत्तदव्वसंचयं करिय आगंतूण चत्तारि ६ २२९. अब उसी सम्यग्मिथ्यात्वका गुणितकर्मा शकी अपेक्षा कालकी हानिद्वारा स्थानोंका कथन करते हैं जो इस प्रकार है-क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर सम्यक्त्वको प्राप्त हो दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वको प्राप्त हो उत्कृष्ट उद्वेलनाकालके द्वारा उद्वेलना करके दो समयको स्थितिवाले एक निषेकको धारण करनेवाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य द्रव्य होता है। अब इस द्रव्यको चार पुरुषोंका आश्रय लेकर पांच वृद्धियोंके के द्वारा तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होनेतक बढ़ाते जाना चाहिये । भाव यह है कि सातवीं पृथिवीके नारकीके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट करके फिर क्रमशः सम्यक्त्वको प्राप्त हो दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर पुनः उत्कृष्ट उद्बलना कालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो सातवीं पृथिवीमें उत्कृष्ट द्रव्यको करता हुआ ओघसे उत्कृष्ट द्रव्यके कुछ कम आधे द्रव्यका संचय करके आया और सम्यक्त्वको प्राप्त हो दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करता रहा। फिर उत्कृष्ट उद्वलना काल द्वारा उद्वलना करके तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकको धारण करके स्थित है। ६२३०. अब अपने कम किये गये द्रव्यको बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान गुणित घोलमान योगवाला एक अन्य जीव है जो उत्कृष्ट द्रव्यसे कुछ कम दो बटे तीन भागप्रमाण द्रव्यका संचय करके आया और तीन गोपुच्छाओंको धारण करके स्थित है। अब अपने कम किये गये द्रव्यको तीन वृद्धियोंके द्वारा बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो कुछ कम तीन बटे चार भागप्रमाण द्रव्यका संचय करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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