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________________ गा० २२) उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं | २१९ सुहमणिगोदेसु अच्छिय पुणो तत्तो णिप्पिडिय पलिदो० असंखे०भागमेत्ताणि संजमासंजमकंडयाणि तेहिंतो विसेसाहियमेत्ताणि सम्मत्ताणताणुवंधिविसंजोयणकंडयाणि अट्ट संजमकंडयाणि चदुक्खुत्तो कसायउवसामणं च कादण एइंदिएसु भमिय पच्छा असण्णिपंचिदिएसु उपजिय तत्थ देवाउअं बंधिय देवेसु उपजिय छप्पजत्तीओ समाणिय पुणो सम्मत्तमुवणमिय वेछावहिसागरोवमाणि ममिय तदो मिच्छत्तं गंतूण दोहुव्वेल्लणकालेण सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लिय एगणिसेगे दुसमयकालष्टिदिए सेसे सम्मामिच्छत्तस्स सव्वजहण्णढाणं होदि । संपहि जहण्णदव्वम्मि ओकड्डक्कड्डणाओ अस्सिदण एगपरमाणुम्मि ओवट्टिदे विदियमणंतभागवड्डिठाणं होदि, जहण्णदव्वेण जहण्णदव्वे खंडिदे संते तत्थ एगखंडमेत्तरूववड्डिदसणादो। दुपरमाणुत्तरं वड्डिदे वि तदियं ठाणमणंतभागवड्डीए, जहण्णट्ठाणदुभागेण जहण्णट्ठाणे भागे हिदे वडिरूवोवलंभादो । एवमणंतभागवड्डीए चेव अणंताणि ठाणाणि णिरंतरं गच्छंति जाव जहण्णपरित्ताणतेण जहण्णट्ठाणे भागे हिदे तत्थ एगभागमेत्ता कम्मपरमाणू जहण्णदबम्मि वड्डिदा ति । एवं वड्डिदे अणंतभागवडी परिसमप्पदि । अंसाणमविवक्खाए एत्थ एगपरमाणुम्मि वहिदे असंखेजभागवड्डी होदि, जहण्णदव्वभागहारस्स वड्डिरूवागमणणिमित्तस्स एत्थ असंखेज्जत्तवलंभादो। तं जहाजहण्णपरित्ताणंतं विरलिय जहण्णदव्वे समखंडं कादूण दिण्णे विरलणरूवं पडि कालतक सूक्ष्म निगोदियोंमें रहकर फिर वहांसे निकलकर पल्यके असंख्यातवें भागबार संयमासंयमको और इनसे विशेष अधिक बार सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाको, आठ बार संयमको तथा चार बार कषायोंके उपशमको प्राप्त करके, फिर एकेन्द्रियोंमें भ्रमणकर, बादमें असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर और वहाँ देवायुका बन्धकर फिर देवोंमें उत्पन्न होकर और छह पर्याप्तियोंको पूरा कर फिर सम्यक्त्वको प्राप्तकर और दो छयासठ सागर कालतक भ्रमण कर फिर मिथ्यात्वमें जाकर वहाँ उत्कृष्ट उद्वलना काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्घ लना कर जब दो समय कालकी स्थितिवाला एक निषेक शेष रहता है तब सम्यग्मिथ्यात्वका सबसे जघन्य स्थान होता है। अब जघन्य द्रव्यमें अपकर्षण-उत्कर्षणकी अपेक्षा एक एक परमाणुकी वृद्धि होने पर अनन्तभागवृद्धिसे युक्त दूसरा स्थान होता है, क्योंकि जघन्य द्रव्यका जघन्य द्रव्यमें भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त होता है उसकी वहां वृद्धि देखी जाती है । जघन्य द्रव्यमें दो परमाणुओंके बढ़नेपर अनन्तभागवृद्धिसे युक्त तीसरा स्थान होता है, क्योंकि जघन्य स्थानमें जघन्य स्थानके आधेका भाग देने पर दो परमाणुओंकी वृद्धि पाई जाती है । इस प्रकार जघन्य परीतानन्तका जघन्य स्थानमें भाग देने पर वहां जघन्य द्रव्यमें लब्ध एक भागप्रमाण कर्म परमाणुओंकी वृद्धि होने तक केवल अनन्तभागवृद्धिके निरन्तर अनन्त स्थान होते हैं। इसप्रकार वृद्धि होनेपर अनन्तभागवृद्धि समाप्त होती है। आगे अंशोंकी विवक्षा न करके एक परमाणुकी वृद्धि होने पर असंख्यातभागवृद्धि होती है, क्योंकि जिसका जघन्य द्रव्यमें भाग देकर वृद्धिके अंक प्राप्त किये जाते हैं वह यहां असंख्यात है। खुलासा इस प्रकार है-जघन्य परीतानन्तका विरलन कर जघन्य द्रव्यके समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर विरलनके प्रत्येक एकके प्रति पूर्वोक्त वृद्धिरूप द्रव्य प्राप्त होता है। फिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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