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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २१७ करिय तत्थ वे खंडे मोत्तूण उवरिमउक्कस्ससंखेजमेत्तखंडेहि सह सेसगुणहाणीसु धादिदासु पयडिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा जहण्णपरित्तासंखेजगुणा । पुगो सवपच्छिमवियप्पो बुच्चदे । तं जहा–चरिममुव्वेल्लणफालीए अद्धेण पढमगुणहाणीए खंडिदाए जं लद्ध तत्तियमेत्तखंडाणि पढमगुणहाणिं करिय तत्थ बे खंडे मोत्तूण सेसदुरूवूणखंडेहि सह उवरिमासेसहिदीसु धादिदासु असंखेजगुणवड्डीए समत्ती होदि । एत्थ को गुणगारो ? चरिमफालिअद्ध ण गुणहाणीए खंडिदाए जं लद्धं तं रूवणं गुणयारो। अथवा चरिमफालिओवट्टिददिवड्डगुणहाणिगुणगारो । तदो पयडिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छाए सिद्धमसंखेजगुणत्तं । एवं विगिदिगोवुच्छाए पमाणपरूवणा कदा। २११. एवं विहपयडि-विगिदिगोवुच्छाओ घेत्तूण सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं पदेससंतकम्मं । संपहि जहण्णसामित्तं परूविय अजहण्णसामित्तपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि * तदो पदेसुत्तर। ६ २१२. जहण्णहाणस्सुवरि ओकड्डक्कड्डणाहितो एगपदेसे वड्डिदे विदियं ठाणं । . जोगकसायवडिहाणीहि विणा कथमेगो परमाणू वड्डदि हायदि वा ? ण एस दोसो, जोगकसाएहि विणा अण्णेहि वि जीवपरिणामेहिंतो कम्मपरमाणूणं प्रमाण खण्ड करके उनमेंसे दो खण्डोंको छोड़कर ऊपरके उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण खण्डोंके साथ शेष गुणहानियोंके धाते जानेपर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा जघन्य परीतासंख्यातगुण प्राप्त होती है। अब सबसे अन्तिम विकल्पको कहते हैं । वह इस प्रकार है-उद्वेलनाकी अन्तिमी फालिके आधेका प्रथम गणहानिमें भाग दो जो लब्ध आवे, प्रथम गुणहानिके उतने खण्ड करके उनमेंसे दो खण्डोंको छोड़कर दो कम शेष खण्डोंके साथ ऊपरकी शेष सब स्थितियों के घाते जाने पर असंख्यातगणवृद्धिको समाप्ति होती है। शंका-यहाँ गुणकारका प्रमाण क्या है ? समाधान-अन्तिम फालिके आधेका गुणहानिमें भाग देने पर जो लब्ध आवे एक कम उतना गुणकार है । अथवा अन्तिम फालिसे भाजित डेढ़ गुणहानि गुणकार है। इसलिये प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी सिद्ध होती है। इस प्रकार विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका कथन किया। $ २११. इस प्रकार प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतगोपुच्छाकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसत्कर्मका कथन किया। अब जघन्य स्वामित्वका कथन करके अजघन्य स्वामित्वका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं ॐ उससे एक प्रदेश अधिक होता है। ६ २१२. जघन्य स्थानके उपर अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा एक प्रदेशके बढ़ने पर दूसरा स्थान होता है। शंका—योग और कषायकी वृद्धि और हानिके बिना एक परमाणु कैसे घट बढ़ सकता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि योग और कषायके सिवा जीवके अन्य २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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