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________________ २१२ जयधवलासहिदेकसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ चरिमफालिआयामो दुगुणिय पक्खिप्पदे ? ण, चरिमगुणहाणिगोवुच्छाहितो दुचरिमगुणहाणिगोवुच्छाणं दुगुणत्तुवलंभादो । पुणो अवरेगे उव्वेल्लणडिदिखंडए णिवदमाणे चउग्गुणं करिय पक्खिवेयव्वा । ण च उव्वेल्लणखंडयाणि सव्वत्थ सरिसा' चेवे ति णियमो, उव्वेल्लणकालस्स जहण्णुकस्सभावण्णहाणुववत्तीए । एत्थ पुण सव्वुव्वेल्लणहिदिखंडयाणमायामो सरिसो चेव, अहिकयउक्कस्सुव्वेल्लणकालत्तादो। एवमेदेण कमेण वेगुणहाणिमेत्तद्विदीसु णिवदिदासु विगिदिगोवुच्छाए भागहारो चरिमगुणहाणीए णिवदिदाए जो उत्तो सो चेव होदि । णवरि एत्य पुण उवरिमअंतोकोडाकोडीए अण्णोण्णब्भत्थरासी दोगुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा रूवूणेणोवट्टेदव्यो। कुदो ? गुणगारीभूददिवड्डगुणहाणीदो तब्भागहारीभूददिवढगुणहाणीए एवदिगुणत्तुवलंभादो। एवं तिण्णि-चत्तारिआदी जावुक्कीरणद्धोवद्भिदचरिमफालीए जत्तियाणि रूवाणि तत्तियमेत्तगुणहाणीसु णिवदिदासु उव्वेल्लणकालभंतरे एगगुणहाणिमेत्तकालो गलदि । ६२०१. संपहि एत्थतणविगिदिगोवुच्छाए पमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहादिवड्डगुणहाणिगुणिदसमयपबद्धे अंतोमुहुत्तोवट्टिदओकड्डक्कड्डणभागहारेण गुणसंकमफालिसे अधिक डेढ़ गुणहानिको स्थापित करना चाहिये । शंका-प्रथम गुणहानिकी अन्तिम फालिका आयाम दूना क्यों स्थापित किया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अन्तिम गुणहानिको गोपुच्छाओंसे उपान्त्य गुणहानिकी गोपुच्छाएँ दूनी पाई जाती हैं। फिर एक दूसरे उद्वेलनाकाण्डकके पतन होने पर अन्तिम फालिका आयाम चौगुना करके मिलाना चाहिये। तब भी सर्वत्र उद्वेलनाकाण्डक समान ही होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है, अन्यथा जघन्य और उत्कृष्ट उद्वेलनाकाल नहीं बन सकता । किन्तु यहाँ पर सब उद्वलना स्थितिकाण्डकोंका आयम समान ही लिया है, क्योंकि प्रकृतमें उत्कृष्ट उद्वेलनाकालका अधिकार है। इस प्रकार इस क्रमसे दो गुणहानिप्रमाण स्थितियोंका पतन होने पर विकृतिगोपुच्छाका भागहार वही रहता है जो अन्तिम गुणहानिके पतनके समय कह आये हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां पर दो गुणहानिशलाकाओंको ५क कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे उपरिम अन्तःकोड़ाकोड़ीकी अन्योन्याभ्यस्त राशिको भाजित करना चाहिये, क्योंकि, गुणकाररूप डेढ़ गुणहानिसे उसकी भागहाररूप डेढ़ गुणहानि इतनी गुणी पाई जाती है। इस प्रकार तीन गुणहानि और चार गुणहानि आदिसे लेकर चरमफालिमें उत्कीरणकालका भाग देनेपर जितने अंक प्राप्त हों उतनी गुणहानियोंका पतन होने पर उद्वेलना कालके भीतर एक गुणहानिप्रमाण काल गलता है। ६ २०१. अब यहांकी विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका अनुगम करते हैं । वह इस प्रकार है-डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एक समयपबद्ध में अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षणउत्कर्षणभागहार, गुणसंक्रमभागहार, दो छयासठ सागरको अन्योन्याभ्यस्तराशि, उपरिम १. ताप्रा०प्रत्योः 'सम्वद्ध सरिसा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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