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________________ १७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ णिधत्तिकरणेहि परिणामंतरमुवगयाणं मिच्छत्तकम्मक्खंधाणं सव्वेसि पि परपयडिसंकमोकड्डणाणमभावादो। ण च ओकड्डिदासेसपरमाण सव्वे वि वेछावद्विसागरोवममेत्तहेहिमणिसेगेसु चेव णिवदंतिः अप्पिदणिसेगादो हेहा आवलियमेत्तणिसेगे अइच्छिद्ण सव्वणिसेगेसु ओकड्डिदकम्मक्खंधाणं पदणुवलंभादो। पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तकालेण जदि एगावलियमेत्तणिसेगट्ठिदी उवरिमाओ पिल्लेविजंति तो वेछावहिसागरोवमकालेण केत्तियाओ पिल्लेविजंति त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए पलिदो० असंखे०भागमेत्तणिसेगाणं पिल्लेवणुवलंभादो ण सव्वाहिदीओ जिल्लेविजंति । किं च ण सव्वणिसेगाणमोकड्डुक्कड्डणभागहारो पलिदो० असंखे भागो चेव होदि ति णियमो, जवसामणा-णिकाचणा-णिवत्तीकरणेहि पडिग्गहिदणिसेगेसु असंखे०लोगमेत्तभागहारस्स वि उदयावलियबाहिरणिसेगाणं व तत्थवलंभादो। ण च उवसामणा-णिकाचणा-णिवत्तीकरणाणि एगेगणिसेगकम्मक्खंधाणमेवदिए भागे चेव वति त्ति णियमो अस्थि, तप्पडिबद्धजिणवयणाणुवलंभादो। तम्हा ण सव्वे णिसेगा जिल्लेविनंति त्ति सिद्धं । एवं वड्डिदृणच्छिदक्खवगेण खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मामिच्छ त्तं पडिवजिय पढमछावहिं भमिय पुव्वं व सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमयम्मि सम्मामिच्छत्तमपडिवजिय' तत्थ दंसणमोहणीयक्खवणं प्राप्त नहीं होते हैं पर उपशामना, निकाचना और निधत्तिकरणके कारण उन सभी कर्मस्कन्धोंका पर प्रकृतिरूपसे संक्रमण और अपकर्षण नहीं होता। तथा अपकृष्ट हुए सभी परमाणु दो छयासठ सागर कालप्रमाण नीचेक निषकोंमें ही नहीं गिरते; किन्तु विक्षित निषेकसे नीचेके आवलिप्रमाण निषेकोंको छोड़कर बाकी के सब निषेकोंमें अपकृष्ट कर्मस्कन्धोंका पतन पाया जाता है। दूसरे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालके द्वारा यदि ऊपरके एक आवलिप्रमाण निषेकोंकी स्थिति नष्ट होती है तो दो छयासठ सागरप्रमाण कालके द्वारा कितनी निषेकस्थितियोंका ह्रास होगा, इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छाराशिको गणा करके प्रमाणराशिसे उसमें भाग देने पर इतने कालके द्वारा असंख्यातवें भाग निषेकोंका विनाश पाया जाता है; सब स्थितियोंका विनाश नहीं होता। तीसरे सब निषेकोंका अपकर्षण उत्कर्षण भागहार पल्पके असंख्यातवें भाग ही होता है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि उपशमना, निकाचना और निधत्तिकरणके द्वारा स्वीकृत निषेकोंके रहते हुए उदयावलीबाह्य निषेकोंकी तरह उनमें असंख्यात लोकप्रमाण भागहार भी पाया जाता है। तथा उपशामना, निधत्ति और निकाचनाकरण एक-एक निषेकरूप कर्मस्कन्धोंके इतने भागमें ही होते हैं ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि इस बातका नियामक कोई जिनबचन नहीं पाया जाता, इसलिये सब निषेकोंका विनाश नहीं होता यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुये क्षपकसे, क्षपितकाशके लक्षणके साथ आकर, सम्यक्त्वको प्राप्त करके, प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण करके, तदनन्तर पहले सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त करता था सो न करके सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त करनेके कालके प्रथम समयमें दर्शन १.भा.प्रती 'पडिग्गहिदाणिसेगेसु' इति पाठः। २. ता०प्रतौ 'सम्मामिच्छत्तं(म)पडिवजिय' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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