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________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ एगपरमाणुस्स भागेणब्भहिय वेछावट्ठि सागरोवममेत्तसमयपबद्धाणं सामित्तचरिमसमए fa अभावादो अप्पिद गणिसेगट्टिदिं मोत्तूण सेस णिसेग हिदीसु डिदमिच्छत्त सव्वपदेसाणं परपयडिसकमेण अधहिदिगलणेण च विणडत्तादो च । १३६. संपहि एदम्मि जहण्णदव्वे पयडिगोवुच्छाए पमाणाणुगमं कस्सामो । तंजहा - एगम्मि एइंदियसमयपबद्धे दिवड्डगुणहाणीए गुणिदे एइंदिए सु संचिददव्वं होदि । तम्मि अंतोत्तोवट्टिदओकड्डुकड्डणभागहारेण ओबट्टिदे उकडिददव्यमाणं होदि । उक्कडिददव्वेण विणा एइंदिएस संचिददव्वेण सह वेछावट्टिसागरोवमाणि किण्ण भमाडिजदे ? ण, मिच्छत्तपरमाणूणं देसूणसागरोवममेत्त हिदीणं वेछावहि सागरोवममेकाला हाण विरोहादो। पुणो अंतोकोडा कोडिअमंतरणाणागुणहाणि सलागासु चिरलिय विगुणिय अण्णोष्णगुणिदासु जा समुप्पण्णरासी ताए रूवूणाए वेछावहिसागरोवमृणअंतोकोडाकोडीए अन्यंतरणाणागुहाणिसलागासु विरलिय विगुणिय अण्णोष्ण गुणिय रूवूणीकदासु उप्पण्णरासिणा ओवट्टिदाए जं लद्धं तेण उकडिददव्वे ओट्टिदे १३६ अधिक दो छयासठ सागर प्रमाण समयप्रबद्धोंका एक भी परमाणु नहीं पाया जाता तथा विवक्षित एक निषेक की स्थितिको छोड़कर शेष निषेकोंकी स्थितियों में स्थित मिथ्यात्व के सब प्रदेशोंका परप्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा व अधः स्थितिगलनाके द्वारा विनाश हो जाता है । विशेषार्थ — पहले उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मको बतलाते हुए गुणितकर्मा शकी सामग्री और प्रकार बतला आये हैं अब जघन्य प्रदेशसत्कर्मको बतलाते हुए क्षपितकर्मा शका प्रकार बतलाया है कि किस तरह कोई जीव कर्मोंका क्षपण करके मिध्यात्वके जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामी हो सकता है । उत्कृष्ट संचयकी पहले जो सामग्री कही है उससे बिल्कुल विपरीत जघन्य प्रदेशशतकर्मकी सामग्री है। उसमें यही ध्यान रखा गया हैं कि किस प्रकार कर्मोंका अधिक संचय नहीं होने पावे | इसलिये सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न कराकर वहां अपर्याप्त के भव अधिक Taal हैं और योगस्थान भी जघन्य ही बतलाया है । तथा आयुबन्ध उत्कृष्ट योगके द्वारा बतलाया है । इसी प्रकार आगे भी समझना । $ १३६. अब इस जघन्य द्रव्यमें प्रकृति गोपुच्छाका प्रमाण बतलाते हैं । वह इस प्रकार है - एकेन्द्रियसम्बन्धी एक समयप्रबद्धको डेढ़ गुणहानिसे गुणा करने पर एकेन्द्रियों में संचित हुए द्रव्यका प्रमाण होता है । उस संचित द्रव्यमें अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण- उत्कर्षण भागहार से भाग देने पर उत्कर्षित द्रव्यका प्रमाण होता है । शंका- उत्कर्षित द्रव्यके बिना एकेन्द्रियोंमें संचित हुए द्रव्यके साथ दो छयासठ सागर तक भ्रमण क्यों नहीं कराया जाता ? - समाधान — नहीं, क्योंकि कुछ कम एक सागर प्रमाण स्थितिवाले मिथ्यात्व के परमाणुओं के दो छयासठ सागर तक ठहरनेमें विरोध आता है । फिर अन्तःकोड़ाकोड़ी के भीतर जो नाना गुणहानि शलाकाएँ हैं उनका विरलन करके और उन विरलन अंकोंको द्विगुणित करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसमें एक कम करो। और दो छयासठ सागर कम अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरके भीतर जो नानागुणहानिशलाकाएँ हों उनके विरलन अंकों को द्विगणित करके परस्पर गुणा करनेसे जो जो राशि उत्पन्न हो एक कम करके उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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